संजय के इस ब्‍लॉग में आपका स्‍वागत है. मेरा सिरजण आप तक पहुंचे, इसका छोटा सा प्रयास।

Monday, August 30, 2010

दूहा निरन्‍तर दूहा

पूरब और पश्चिम 
होडा-होड, गोडा-फोड़,
चारयूंमेर भागम दौड़। 
रिपीयो बणग्यो, माईबाप,
चौकी मोटी, छोटी खांप।


जनता कम, अर नेता घणा,
निब्बे पर भारी, दसूं जणा।
नीत अनीत, सुरग रा पट्टा,
आज बण गया, हंसी‘र ठट्टा।


जूण मिनख री है अनमोळ,
बिसरयो ए, संतां रा बोळ।
गरूजी खोल लियो बैपार,
तनखा धोबो, टिंगर चार।


राज रो पईसो, सहसतरधार,
न्हाओ मोकळा, भवसागर पार।
भाठा हो रिया, मालामाळ,
पढ़ियो कूके, बाका फाड़।


कळजुग रो, ओ मेळो देख,
तांबो काढै सोने री मेख।
काग दड़ाछंट, राज करै,
हंसो घुट घुट, मांय मरै।









Monday, August 16, 2010

म्‍हारा राजस्‍थानी दूहा

जीवण मुरली ज्यूं,
थोथी बोले फुर
मिनख री लगायोडी फूंक
सुणावे दोय सुर


सतसंग मसाणिये बेराग ज्यूं
मांय तो परलोक सुधारै
पण बारै आवंते ही
निनाणूं रो फेर याद दरावै


पाणी जीये री जड़ी ज्यूं
धारमधार बैंवतो जावै
पण जे काळ पडै़ तो
मिनख तडफतो ही जावै


मौत साची चेंजरूम ज्यूं
काया रा जूना गाबा उतरावै
अर झाग नूवो चोगो पैराव
आतमा सागी साथ निभावै




इज्जत लक्कड़ नाव ज्यू
भवसागर तरा जावै
पण एक ही खाडो हूंया
मिनख लैअ‘र डूब जावै


आंसू विभीसण ज्यूं
अन्तस रा भेद बतावे
लाख लुकाओ पण
राज हिये रा खोल जावै


हैलो कुण्डी ज्यूं
मिन्दर मसजिद मांय गुंजावै
भोळो समझै इत्ती बात
हैला सागी रेख ही जावै


सनमान बंटती रेवडयां ज्यूं
लूंठा रे खाते में आवै
सुपातर बापड़ो खड़ो किनारै
बाट जांवतो ही रै जावै


लिखमी अंधड़ रै धोरां ज्यूं
चंचळ ठौर बदळती जावै
सुरसत खेजळ ठौर-ठौर
छियां ज्ञान री धाप ओढावै


सुख-दुख तावड़ै री घड़ी ज्यूं
दोय पड़द आवै अर जावै
बढै तावड़ौ छियां घटत में
पण सींझया पाछी घर आवै

Wednesday, May 19, 2010

हरीयल वादियों में खोया रेगिस्तानी मन (यात्रा वृतान्त )

हरीयल वादियों में खोया रेगिस्तानी मन
(यात्रा वृतान्त )


बीकानेर की चिलचिलाती जून महिने की धूप में कालका के लिए प्रस्थान किया। तापमान झूल रहा था छियालिस-सैंतालिस के बीच। धूल से रास्ते भर स्वागत करती आंधियां राजस्थान की सीमा तक विदा करने के लिए मौजूद थी। पंजाब आते आते मौसम कुछ सुहावना हो गया। कालका पहुंचे तो सौ साल से पहाड़रें की सैर कराने वाली टॉय ट्रेन ‘हिमालयन क्वीन‘ तैयार खड़ी थी। पहाड़ी धाटियां, सुरंगों, पुलों, जंगलों और सड़कों के साथ साथ इस खिलौना गाड़ी में सफर करने का आनन्द शब्दों की बयानबाजी से परे है। जहाँ चाहे नजर दौड़ा लें, प्राकृतिक दृश्य आपकी आँखों के रस्ते दिल में उतर जाता है। पहाड़ी चोटियों पर छायी बर्फ ऐसा प्रतीत करा रही थी जैसे हिमालय ने बर्फ का मुकुट पहन रखा है। छोटी छोटी घाटियों जैसे हिमालय के दरबारी हों। सब कुछ जादुई, मनमोहक और अद्भुद। शाम घिरते शिमला पहुंचे। शिमला समुन्द्र तल से 6790 फीट पर बसा देश का सबसे खूबसूरत हिल स्टेशन है। इसकी लम्बाई मात्र 12 किलोमीटर है। इन्टरनेट से पहले ही होटल कमरों की बुकिंग करवा चुके थे इसलिए कोई खास परेशानी नहीं हुई। कल्पना कीजिये कि बीकानेर में जून की गर्मी और शिमला में हाड कंपा देने वाली सदी। होटेल में रजाईयों की अच्छी व्यवस्था थी। थकान ऐसी कि खाना खाने के बाद कब नींद ने अपनी कम्बल में लपेट लिया, अहसास ही नहीं हुआ।
अगले दिन सुबह सवेरे ही शिमला और इसके आसपास के स्थलों के भ्रमण का प्लान बनाया। इसके लिए हमने मारूति वेन को किराये पर लिया। सबसे पहले पहुंचे-कुफरी। खच्चरों पर बैठ कर ये यात्रा डेढ-दो किलोमीटर से पूरी की। दलदली रास्ता, डरे सहमे हम, समझदार खच्चर और हंसी-ठहाकों से गूंजता रास्ता। एक तरफ पहाड़ी और दूसरी और खाई। लेकिन पूरी तरह हरियाली ही हरियाली। हम कुफरी तक पहुंचे ही थे कि घनघोर बरसात आरम्भ हो गई। ठण्ड से मिमियाते यात्री जहाँ तहाँ शरण लिये बैठे थे। यह स्थल बर्फ के खेलों, याक की सवारी तथा कस्तूरी मृग प्रजनन केन्द्र के लिए प्रसिद्ध है। बरसात रूकी तो कुफरी से निकले। जंगल के बीच स्थित चिड़िया घर में अजीबोगरीब जानवरों और पक्षियों को देखा। इनमें स्नो लेपर्ड (पहाड़ी तेंदुआ), चीनी मुर्गा जैसे प्राणी भी शामिल थे। यहाँ से हम पहुंचे- द चाईना बैंग्लो। पहाड़ी पर बना लकड़ी का हरे रंग का यह घर किसी बंगले से कम नहीं लगता। कुछ पल यहाँ बिताने के बाद हमने जाखू हनुमान मन्दिर पहुंचे। यह शिमला का सर्वोच्च शिखर है जहाँ पर सीधी और कठिन चढाई है। इसके शिखर पर हनुमान जी का मन्दिर है। इसके बाद कम समय होने के बावजूद फागु तथा ग्रीन वैली का भी भ्रमण किया। बालू के टीले देखने वाले रेगिस्तानी व्यक्ति के लिए हरियाली भरा दृश्य कितना मनोरम रहा होगा, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं। 
शाम को थके हारे होटल पहुंचे और अगले दिन के प्रोग्राम का विचार बनाया। अगला दिन हम शिमला में ही व्यतीत करना चाहते थे। इसलिए पहुंचे सुप्रसिद्ध माल रोड। अंग्रेजों के रूआब और भव्यता की मिसाल है- माल रोड। यह एक व्यस्त सैरगाह है। पुरानी कॉलोनियां, दुकानें और रेस्टोरेंट। सब एक से बढ कर एक। हमारी खुशनसीबी रही कि उसी दिन हिमाचल फेस्टिवल भी माल रोड पर आरम्भ हुआ। हमने वहां जम कर खरीददारी की।विशेष रूप से कुछ गर्म कपड़े, अखरोड, काजू, स्ट्रॉबेरी और लीची। माल रोड पर ही गेयटी थियेटर को देखने का सुअवसर भी मिला। 
एक दिन और शिमला में रूकने के बाद हमने एक टाटा स्पेशियो किराये पर ली। ये गाड़ी हमें शिमला से कुल्लु होते हुए मनाली ले जाने वाली थी। मनानी की ट्रिप समाप्त होने पर यही गाड़ी हमें कालका पहुंचाने वाली थी जहाँ से हमें बीकानेर के लिए ट्रेन पकड़नी थी। सुबह सवेरे शिमला को मायूसी के साथ अलविदा कहा और निकल पड़े मनाली की ओर। पार्वती नदी के सहारे सहारे चलता वाहन प्रकृति के प्रति सहज श्रद्धा उत्पन्न कर रहा था। बीच में तो कई मिनिटों तक सुरंग का रास्ता मिला। इंसानी करिश्में के रूप में स्थित यह सुरंग हैरतअंगेज लगी। कुल्लु होते हुए शाम को मनाली पहुंचे। इन्द्र देवता यहाँ हमारा स्वागत करने के लिए तत्पर थे। मॉडल टाऊन में ही होटल में कमरा बुक कराया और रात का खाना गुजराती रेस्टोरेंट में खाकर नींद लेना उचित लगा। 

मनाली में पहली सुबह बादलों ने एका कर सूर्य से लुकाछिपी का खेल खेलना शुरू कर दिया। हम सुबह सवेरे ही निकल पड़े। सबसे पहले मनुमन्दिर में पहुंचे और मनु महाराज की मूर्ति के दर्शन किये और मन्दिर के इतिहास के बारे मंे जानकारी हासिल की। यहाँ से हम पहुँचे हिडिम्बा टेम्पल टिपिकल पहाड़ी मन्दिरों की तरह यह भी झोंपड़ीनुमा मन्दिर है। ऊँचे और ऊँचे देवदार के पेड़ों से ढका पूरा इलाका रहस्यमय लगता है। इसी मन्दिर के पास में घटोत्कच का पूजा स्थल भी स्थित है। कुछ ही दूरी पर बौद्ध मठ स्थित है जहाँ जाकर मन को अतीव शांति अनुभूत हुई। इसके बाद हम पहुंचे क्लब हाउस। यह सैर सपाटे और मनोरंजन का मुख्य केन्द्र है। हाँ, बड़ों के लिए कुछ खास नहीं पर बच्चों ने यहाँ जम कर आनन्द उठाया। शाम को होटल पहुंचे और आज पंजाबी खाने का लुत्फ लिया। आज के दिन इतना ही काफी था।
ड्राईवर के निर्देश के अनुसार ही सुबह 4 बजे हम निकल पड़े रोहतांग के लिए। यह वह स्थान है जिसे देखने के लिए अतीव उत्कंठा थी। सुरम्य घाटियों, टेढे मेढे रास्तों और गालों को सहलाते हुए ठण्डे-ठण्डे झोंकों के साथ हम रोहतांग के रास्ते पर थे। यह रास्ता फिसलन भरा और सीधी सड़क वाला है। दूर से ही सफेद टोपियां लगाये पहाड़ियां आमंत्रण देती सी प्रतीत हो रही थी। गाड़ी 15 से 20 कि.मी. प्रतिघंटे से ज्यादा तेज चलाना खतरे से खाली नहीं था। यही हमने बर्फीले मौसम में पहनने वाले विशेष कपड़े, दस्ताने और बूट किराये पर लिये। लगभग तीनघंटे के सफर के बाद हम पहुंचे रोहतांग की वादियों में।
पहाड़ियों ने जैसे धवल वस्त्र धारण कर लिया था। गाड़ी से उतर कर लपक पड़े अनछुई बर्फ पर। बर्फ के आगोश में बैठ कर अनुभूत किये गये भावों को वर्णित करना शब्दों से परे है। बच्चों ने यहाँ स्नो मैन बनाये, एक दूसरे पर बर्फ फेंकी और जम कर आनन्द उठाया। इसी क्षण स्नो फॉल भी आरम्भ हो गया। इन्द्र के हाथों से मुट्ठीयों में भर-भर कर फेंकी गई बर्फ के गिरने का अद्भुत दृश्य रोमान्चित कर गया। यहाँ दो घंटे बिताने के बाद वापिस मनाली लौटे। कुछ देर घूमघाम कर शॉल खरीदने का निर्णय किया। सभी परिजनों, मित्रों के लिए कुछ न कुछ उपहार लेना लाजमी था। सबकी पसंद के अनुसार कुछ न कुछ खरीदा। इसके बाद फास्ट फूड का आनन्द भी लिया। 

अगला दिन रवानगी का था। हमने निर्णय किया कि हम सिखों के पवित्र गुरूद्वारे मणिकर्ण के दर्शन कर ही कालका पहुंचेंगे। मणिकर्ण में एक तर्फ सनसनाता ठण्डा पानी तो दूसरी तरफ गर्म पानी का श्रोत, अचरज में डालने वाला लगा। मणिकर्ण सिक्खों के लिए एक अत्यन्त ही प्राचीन और श्रद्धा का केन्द्र है। यहाँ 24 घंटे लंगर चलता है। यहाँ दर्शन कर हमने कालका की राह पकड़ी। कालका से रेल द्वारा रवाना हुए सुबह एक बार पुनः गर्म हवाओं के थपेड़ों ने हमारा स्वागत किया। ऐसा लगा हम रात भर किसी मधुर स्वप्न से अचानक उचक जाग बैठे हों। धीरे-धीरे बीकानेर नगर के निशान दिखने लगे। शिमला मनाली में बिताये अविस्मरणीय दिनों के बावजूद बीकानेर हमेशा की तरह अच्छा लगा, और अधिक प्यारा लगा।     

Thursday, April 29, 2010

छेड छेड कर छोडा गया सांप नक्‍सलवाद

छेड़-छेड़ कर छोड़ा गया साँप:- नक्सलवाद

सी.आर.पी.एफ. के पिचहत्तर जवानों के घरों में क्रंदन आज भी थमा नहीं है। नक्सलियों ने दंतेवाड़ा के समीप इतना भयानक कुकृत्य कर डाला, जिसने हर एक भारतीय को थर्रा दिया। एक साथ इतने परिवारों का बेहाल होना किसी भी मनुष्य को झकझोरने के लिए पर्याप्त है। जबसे नक्सलबाड़ी ने इसे अंकुरित किया तब भी हमारे नीति नियंताओं ने इसे एक तात्कालिक घटना समझा था और जब यह विषवृक्ष बन चुका है, तब भी हमारे नीति निर्धारक हिचकिचाहट भरी नीतियां इसके उन्नमूलन के लिए लगा रहे हैं। नक्सल आन्दोलन हमारी सड़ी-गली व्यवस्था के विरोध स्वरूप सामने आया था। रोटी के एक-एक कौर को तरसते कबिलाई क्षेत्रों ग्रामीणों ने प्रशासन, पुलिस और डण्डे के जोर पर उन्हे धकियाने वाले समस्त लोगों के विरूद्ध एक से एक को जोड़ते हुए ऐसा सिण्डीकेट तैयार कर डाला, जिसे बेधना असंभव तो नहीं, किंतु आसान भी नहीं होगा। 
देश के लगभग सभी इलाकों में लोग नेताओं से, शासन से और पुलिस से पीड़ित है। ये तीनों ही वर्ग अपने-अपने तरीके से लोकतंत्र मंे अपने लिये शासन करने के छुटके रास्ते निकाल लेते हैं। सालों साल चलते मुकदमों ने जहां न्याय में देरी को ही न्याय की विशेषता बना डाला है, वहीं राजनेता करोड़ों रूपये लगाकर चुनाव में कूदते हैं और उसके दुगुने अपने पांच सालों में वसूल करते हैं। सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी ये समझ सकता है कि ऐसे रक्षक क्या वास्तव में रक्षा करेंगे या इस पीढी से लेकर अगली पीढियों तक जीवन सुगम करने के जुगाड़ में जुटेंगे। कारण भी बड़ा रोचक है कि इन नीति निर्धारकों को हम ही तो चुनते हैं। अन्याय के मारे पीड़ित शोषितों में लावा असंतोष के रूप में धीरे धीरे असंतोष बढता है। आपस में सताये हुए लोगों का दर्द का रिश्ता बनता चला जाता है। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी व्यवस्था खड़ी कर लेते हैं। ऐसी व्यवस्था जहां अदालत हो तुरन्त, न्याय हो तुरन्त, और सजा हो, वो भी तुरन्त। ऐसी व्यवस्था किसी को भी लोकतंत्रीय विश्वास वाले नागरिक को अखर सकती है। खासकर लोकतंत्र के सांचे में ढले लोगों को। लेकिन अन्याय से ग्रस्त व्यक्ति आखिर क्या चाहता है, न्याय और वह उन्हे मिलता है इन अवैध अदालतों में। इन शोषितों में एक बात घर कर जाती है कि संवैधानिक अधिकार प्राप्त अदालतों में दशकों तक न्याय नहीं मिलता। धीरे धीरे सभी बिन्दु मिल कर असंतुष्ट नागरिकों को बगावत की ओर धकेलते चले जाते हैं।   
तो क्या नक्सली क्रांति की ओर जा रहे हैं ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब देना किसी के लिए भी सहज नहीं होगा। राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि या तो सांप को छेड़ो मत, और छेड़ दिया तो उसे जिन्दा मत छोड़ो। लेकिन हमारे राष्ट्रीय पंचों ने किया ठीक इसका उलट। उन्‍होंने जगह-जगह सांपों को छेड़-छेड़ कर छोड़ रखे हैं जो अपने अपने मौके पाकर डसने का काम बदस्तुर कर रहे हैं। कभी मिजो विद्रोही तो कभी नगा, कभी उल्फा तो कभी बोडो, कभी खालिस्तानी तो कभी नक्सली।  अलग अलग रूप अख्त्यार कर विद्रोही केन्द्रीय सत्ता को आखें दिखाते रहे हैं। शायद ये आजाद भारत के जीन्स में है कि समस्या को छोटे से बड़ा होने दिया जाए और जब पानी सर से गुजरे तो मजबूर होकर कार्यवाही की जाए। नक्सलवाद एक ऐसा ही छेड़-छेड़ कर छोड़ा गया साँप है तो युवा हो चुका है और अब डसने की प्रक्रिया भी आरम्भ कर चुका है। 
ये प्रश्न वातानुकूलित कक्षों में बैठे लोगों की चर्चा के केन्द्र बने हुए हैं कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी संख्या वाली फौज के एक साथ पिचहत्तर फौजियों की नृशंस हत्या का दुस्साहस नक्सलियों में आया कहां से ? लगातार मजबूत होते जा रहे नक्सलियों का आधार क्या है ? क्या वे आतंकवादी हैं ? क्या वे देशद्रोही हैं ? हकीकत धीरे-धीरे सामने आ रही है। पहली बात तो ये काबिले गौर है कि देश के अनेक राज्यों के हजारों वर्ग किलोमीटर पर केवल और केवल नक्सलियों का राज चलता है। यहां भारत का संविधान कोई मायने भी रखता है या नहीं, इसका परीक्षण इन जंगलों में इनकी अपनी सेनाएं, अदालतें, अपने कानून और अपने फैसलों को देख कर समझा जा सकता है। नक्सलियों के बर्बर हमलों के बावजूद भी हमारे देश में ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है जो उनके समर्थन में खड़े रहते हैं। यहीं से नक्सलियों को मिलता है नैतिक समर्थन। उन्हे ऐसा लगता है कि वे किसी भी सत्ता से भिड़ सकते हैं। नक्सलियों को केवल कबिलाई लड़ाके समझने की भूल भी हमारे सैनिक कर चुके हैं। अत्याधुनिक अस्त्र, शस्त्र से लैस नक्सली, अब सूचना प्रौद्योगिकी की समस्त सुविधाओं को अपने प्रचार-प्रसार के लिए उपयोग में ले रहे हैं। 
आज आवश्यकता इस बात की है कि नक्सलियों के बारे में दकियानुसी और नैतिकतावादी बातों को पीछे छोड कर अपनी सेना को और बेहतर रूप से तैयार करते हुए सम्पूर्ण ताकत झोंक कर नक्सलियों का उन्नमूलन किया जाए। पुराने चश्में से नयी सुबह नजर नहीं आती। इसलिए आवश्यकता है एक ठोस कार्यवाही की। नक्सलियों ने भारतीय संविधान को ललकारा है। उसने भारतीय फौज से भिड़ने का दुस्साहस किया है। जो संगठन लगातार हजारों लोगों की हत्याओं को संगठित रूप से अंजाम देता है उसे केवल और केवल आतंकवादी संगठन समझा जाना चाहिये और कुछ नहीं ।बेशक उनका आरम्भ स्थापित व्यवस्था के कुचक्र को तोड़ने के लिए हुआ था लेकिन अब ये पूरी तरह संगठित आतंकवादी संगठन है। नक्सलियों का दूरगामी लक्ष्य है भारत की सत्ता तक अपनी पहुंच बनाना। आज यह बात बचकानी लग सकती है लेकिन यदि इन्हे ऐसे ही संगठित होने दिया गया तो कहीं दो-तीन दशक बाद हम पछताते न रह जाऐं। आज वक्त है कि हम इस बात का भी फैसला करें कि हम या तो नक्सलियों के साथ हैं या फिर उनके विरूद्ध। यहां तटस्थता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिये। बन्दुक के बल पर सत्ता का स्वप्न देखने वालों के द्वारा किये गये नरसंहारों की ओर आखें बन्द नहीं होनी चाहिये। नक्सलियों को नैतिक समर्थन देने वालों को भी नक्सलियों के समान ही आतंकवादी समझा जाना चाहिये, ये ही वे लोग हैं तो इनकी बगावत को लगातार सुलगाये रखते हैं। ऐसे तमाम कॉरपोरेट्स जो छत्तीसगढ, झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, बिहार में  अपने उद्योगों को चलाये रखने के लिए नक्सलियों को आर्थिक सहायता देते हैं, वे भी कानून के शिकंजे में आने चाहिये। हर दोषी कटघरे में होना चाहिये लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखने का समय है कि ये समस्या हमारी व्यवस्था की खामियों की उपज है। नक्सली इलाको में रहने वाले सभी लोग ना तो नक्सली हैं और न ही वे नक्सलियों के समर्थक हैं। कुछ भय से उनके साथ हैं तो कुछ अन्य विकल्प नहीं होने के कारण उनका साथ देने का मजबूर हैं। यहां के नागरिक दशकों तक अपने संसाधनों का विदोहन सहते रहे और सूखी रोटी ही पा सके थे। यह प्राकृतिक संपदा उनका प्राकृतिक अधिकार भी है और इस संपदा से आने वाले धन पर भी इनका ही अधिकार भी है। इन क्षेत्रों में एक बार पुनः भरोसा पैदा किया जाना चाहिये कि सरकारें उनके विकास के लिए जी जान से जुटने को तैयार है। यह भरोसा ही लोकतंत्रीय आस्था को नक्सली प्रभावित इलाकों में पुनर्जीवित कर सकता है। 
नक्सली समस्या नासूर बन चुकी है और इसका ईलाज भी उसी रूप में किया जाना चाहिये। यह समय है आर या पार का। भारतीय सेना और वायु सेना दोनों केन्द्रीय पुलिस रिर्जव फोर्स और राज्य पुलिस के साथ समस्त संसाधन झोंके तो नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने में अधिक समय नहीं लगेगा। अब और देरी का मतलब है नक्सलियों को बख्तरबन्द होने के लिए और मोहलत देना जिसका परिणाम पहले से भी भयानक हो सकता है।  

Wednesday, April 7, 2010

(व्‍यंग्‍य) - सम्‍मान मिलने से चूके एक समर्पित शिष्‍य की करूणामयी पीडा पाती

एक दुखियारे की पीड़ा-पाती




रात्रि का तृतीय प्रहर
अमावस्या
आदरणीय मठाध्यक्ष जी,

                 प्रणाम।


प्रथम बार बिना किसी औपचारिकता, सीधे-सीधे मुद्दे पर आने की धृष्टता कर रहा हूँ। आपकी संस्था ने पुरस्कारों के विजेताओं के नामों की घोषणा कर दी है, किंतु मेरा नाम इस सूची में नहीं है। मैं घोर आहत अनुभव कर रहा हूँ। मेरा मन मस्तिष्क सूनामी पीड़ित सा तड़फ रहा है। हे मठाध्यक्ष जी, अपनी अन्तर आत्मा से मैं बार-बार यह प्रश्न पूछ रहा हूँ कि क्या आपके प्रति मेरी भक्ति में कोई खोट रही? जब मैं प्रथम बार देसी घी की मिठाईयाँ (मय छः पृष्ठीय बायोडाटा) लेकर आपके द्वार आया था, तो आपने मिठाई की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए एवं उन्हे जिह्वा की भेंट करते हुए मुझे पुरस्कार दिलवाने के आग्रह को स्वीकार किया था, किंतु हाय री किस्मत, मुझ अभागे को पुरस्कार न मिला। 
आपके संकेतानुसार मैं निर्णायक मण्डल के सदस्यों के निवासों पर घूम-घूमकर अपने गांव का सेर-सेर देसी घी, मिठाई, नमकीन, बायोडाटादि दे आया था। बायोडाटा के साथ अपना पासपोर्ट आकार का चित्र (जिसमें मैंने स्वंय को कुछ गोरा बनवा लिया था) भी संलग्न करने में त्रूटि नही की थी।  कुछ माननीय सदस्यों ने अगली ट्रिप में घृतादि और लाने का आदेश भी दिया था। हे श्रीमन् मैं लाया, सब के लिए लाया, हर बार लाया, बार-बार लाया, किंतु बुरा हो मेरी किस्मत के लेखों का, कि मुझ अभागे को पुरस्कार न मिला।
आपकी बिटिया को अपनी बिटिया समझ कर प्रतिमाह नमकीन-मिठाई लेकर मिलने जाता रहा हूँ। आपके नाती मुझे घोड़ा बना कर मेरी पीठ की सवारी करते रहे हैं। उनकी फरमाईश पर मैं उन्हे वो टॉफी-चॉकलेट लाकर देता रहा हूँ जो मैने तो क्या मेरी सात पुश्तों ने नहीं खाई होगी। आपके नाती ने क्रिकेट खेलते हुए जो शॉट मेरे कुल्हे पर जमाया, वो अभी तक पुख्ता है (और दुखता भी है) आपके दामाद मुझे ‘बेगारिया‘ समझते रहे हैं, आपकी बिटिया के सास-ससुर मुझे ‘आप‘ समझ कर घुड़काते रहे हैं। आपकी बिटिया ने ये समस्त बातें आपको मेरे द्वारा रिचार्ज करवाये गये मोबाईल फोन से बताई थी और मुझे पुरस्कार दिलवाने का ह्द्यस्पर्शी अनुरोध किया था, आपने स्वीकारोक्ति भी दी थी, किंतु हाय, भारी प्रस्तर के नीचे दबा मेरा भाग्य, मुझ अभागे को पुरस्कार न मिला। 
आपको स्मरण होगा कि आपकी छोटी बिटिया जो कि पीएच डी कर रही है, उसके लिए स्टेट लाईब्रेरियों की खाक छानते हुए शताधिक संदर्भ पुस्तकें ऐसे ला चुका हूँ जैसे हनुमानजी श्रीराम के लिए सीतामाता का चूड़ामणि ले आए थे। आपकी इस मेधावी बिटिया के शोध निर्देशक महोदय को बनारसी पान तथा शोध संग्रह के कम्प्यूटरीकरण करने वाले बंधु को पान मसाला (मय जर्दा) समय-समय पर प्रसन्न करता रहा हूँ। मैं समझता रहा कि आपकी द्वितीय सन्तान के प्रति की गई मेरी सेवा से आप विदित रहे हैं, किंतु फिर भी, घास में गुम सुई की तरह खोई मेरी किस्मत, कि मुझ अभागे को पुरस्कार न मिला। 
आपको यह तो स्मरण होगा ही कि आपकी अर्द्धांगिनी के घुटनो में दर्द होने पर ऐलोपैथिक, आयुर्वेदिक, एक्युप्रेशर, एक्युपंचर, सुजोक आदि आदि पद्धतियों से उपचार के दौरान भांति-भांति औषधियां और विशेषज्ञों ऐसे लेकर आता रहा, जैसे विपक्ष हवा में से मुद्दे ले आता है। उपचारावधि के दौरान सेवक निरन्तर सेवा के लिए तत्पर रहा। इतनी तपस्या से तो पत्थर की अहिल्या को श्रीराम मिल गए, किंतु हाय, मुझ अभागे को पुरस्कार न मिला। 
हे श्रीमन् आप यह कैसे भूल सकते हैं कि आपकी लिखी पुस्तकों को पुस्तकालयों, विद्यालयों, महाविद्यालयों, कार्यालयों आदि में बलात् बेचता रहा। साम-दाम-दण्ड-भेद का प्रयोग कर बिना किसी कमीशन के मैं भारतीय मुद्रा, चैक-ड्राफ्टादि आपकी हथेली पर रखता रहा। मेरे अथक परिश्रम से आपके खाते में राशि बढ़ती रही, किंतु हाय री किस्मत, मुझ अभागे को पुरस्कार फिर भी न मिला। 
यह तो आपको याद होगा ही कि जब आपके होनहार पुत्र को मदिरापान उपरान्त कन्या महाविद्यालय के बाहर कमसिन बालाओं को छेड़ने पर पुलिस पकड़ कर ले गई थी, तो आपके इसी सेवक ने वकील का प्रबंध किया था और स्वंय अपनी जमानत देकर रिहा करवाया था। साथ ही थानेदारजी को अखबार में समाचार नहीं देने हेतु ‘राजी‘ किया था। इस प्रकार आपके मान-सम्मान पर आँच नहीं आने दी। आपके सम्मान के लिए मेरे इस साहसी कृत्य पर भी, हाय, मुझ अभागे को पुरस्कार न मिला। 
मेरे साहित्यकार मित्रगण मुझे आपका ‘चमचा‘, ‘पिछलग्गू‘, ‘पूंछ‘ और न जाने क्या-क्या कहते हैं। मैंने कभी उनका बुरा नहीं माना क्योंकि मेरी दृष्टि में आप ‘पुरस्कारदाता‘ की अनुपम छवि वाले विराट व्यक्तित्व हैं किंतु इसका मुझे क्या लाभ, जबकि मुझ अभागे को पुरस्कार न मिला।
भारी एवं दुःखी मन से मैं अपना पत्र समाप्त कर रहा हूँ। आप इस पत्र को मेरी पीड़ा-पाती समझे। यदि आपको मुझे पुरस्कार घोषित नहीं करने की ग्लानि हो, तो किसी एक-आध को हटा कर अथवा कोई नया पुरस्कार घोषित कर मुझे ‘फिट‘ कर सकते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि पुरस्कार प्राप्ति के उपरान्त मैं पूर्ववत् हो जाऊँगा। स्मरण रहे, आपके नाती अभी छोटे हैं, आपकी बिटिया की पीएच.डी. अभी पूरी नहीं हुई है, आपकी धर्मपत्नी अभी भी उपचाराधीन है, आपका पुत्र अभी भी मदिरापान की लत से घिरा है और महामना, आपकी अनेक पुस्तकें अभी भी बिकने से शेष है। 

आपका रूष्ट किंतु शुभसूचनाभिलाषी 
                                                      सेवक एवं लेखक

Sunday, March 7, 2010

लोन ले लो, लोन

लोन ले लो,,,,,,,,लोन
     आजकल चारों तरफ फाईनेन्स कम्पनियों, बैंकों, सरकारों का मिश्रीघुला शोर सुनाई देता है ‘आओ बाबू, आओ अंकल, आओ अन्टी, आओ जवान, आओ विद्यार्थियों, आओ, आओ, और आकर ‘लोन‘ ले जाओ।  नौकरी करते हो, तो सैलेरी सर्टिफिकेट ले आओ, बिजनेसमैन हो, तो इनकमटेक्स रिर्टन की कॉपी ले आओ, पेंशनर हो तो पी पी ओ ले आओ, गृहिणी हो तो पतिदेव की प्यार से आपके नाम खरीदी गई जमीन, मकान के कागजात ले आओ, और भैये, कैसे भी करो पर लोन ले जाओ।   चुकाने की चिन्ता अभी क्यों करते हो ? वो तो हम वसूल कर ही लेंगे, ब्याज सहित, आखिर धन्धे की बात है ।‘‘ 
जिस प्रकार अमृत मंथन के बाद विष्णु ने मोहिनीरूप धर कर असुरों को ठगा था, वैसे ही ये लोनदाता कभी ‘सपनों का अपना घर‘ कभी ‘बच्चों को एस्ट्रोनेट, सिंगर, क्रिकेटर बनाने का गुड़ लेकर‘ रिटायरमेंट के नाम से डरा कर आम आदमी को अपनी ओर बुलाते हैं । जो आम आदमी मुश्किल से ही कभी स्कूटर खरीद पाता था, उसे महलों के ख्वाब हकीकत मंे बदलने के प्रलोभन ये रोकड़दाता दे रहे हैं । अब कोई समझदार आदमी इनसे पूछे कि भैयाजी, अभी दस पांच साल पहले तक तो लोन लेने के लिए बैंकों के चक्कर लगाते लगाते जूते घिस जाते थे, फिर ये अचानक आपको हम गरीबों पर नजरें इनायत करने की क्या सूझी । तो इनके पास जवाब हो ना हो, अपुन के पास है ।
अपने मन अंकल हैं ना, नहीं समझे, अरे पीएम मनमोहन सिंह जी, हां, उन्होंने आम आदमी के मन की बात बहुत पहले ही समझ ली थी । मन अंकल ने बड़े मन से अपने मौनी बाबा प्रधानमंत्री नरसिंम्हाराव जी के विचारों के आयातित गुब्बारों में लिब्रलाईजेशन की हवा भरी । इन गुब्बारों को पिछडे़ भारत के आकाश में छोड़े थे। अपने वित्तमंत्रीत्वकाल में गई फूंकी हुई हवा अब उनके प्रधानमंत्रीत्वकाल में भूखमरी, बेरोजगारी, और रोजी रोटी का रोना रोने वाले इन आम लोगों को खास सपने दिखा रही है । 
उदारीकरण के ये उपहार गरीबी, बेरोजगारी, कूपोषण नामक भारत की प्राचीन संगिनीयों को जीन्स, टॉपर से ढक रहे है । यहां अपने अटलजी को याद ना करना गुस्ताखी होगी। अटल जी ने इस लिब्रलाईजेशन को पाला-पोसा और आज जवान होकर यही लिब्रलाईजेशन आम भारतीय को रोटी, कपड़ा और मकान को भूला कर सपनों का महल, बाइक कार, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, कलर टीवी, म्यूजिक सिस्टम, कम्पयूटर और वीसीडी, डीवीडी खरीदने के लिए आव्हान कर रहा है ।  वाह भई उदारीकरण, तुम जीयो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार । 
वैसे लोन की महिमा अपरम्पार है। कुकरमुत्ते की तरह उग आई फाईनेन्स कंपनियों के दलाल हर छोटे-बडे शो-रूम में एफबीआई एजेंटों की तरह नजर रखते हैं ।  जैसे ही कोई ‘शिकार‘ शो-रूम में दाखिल होता है, इनकी तजुर्बेकार नजरें तुरन्त पहचान लेती हैं कि ये पत्नी-बच्चों के तानों का मारा है, यही मासिक रूप से हरे नोट देने वाली मुर्गी है। फिर क्या, मीठी, मधुर मुस्कान के साथ कागजी कार्यवाही चालू हो जाती है।  इधर-उधर और ना जाने किधर-किधर फटाफट साईन करवाये जाते है । एडवांस चैक पर पहले ही इन भारतीय कॉमन आईडल्स‘ के ऑटोग्राफ ले लिये जाते हैं। कसमसाया असमंजस से भरा भारत का ये आम नागरिक कन्फयुज्ड हो जाता है कि वो आईटम का मालिक बनने की खुशी मनाये या ऋणी होने का गम। इस चक्कर में वो ना तो हंस पाता है और ना ही रो पाता है। इधर चीज आपकी हुई नहीं और उधर ऋणदाताओं की भूमिका बदली। पहले ही दिन किस्तों को टाईम पर जमा करवाने की ताकीद कर दी जाती है। वैसे भी आम आदमी पैसा डकार कर जाएगा कहॉं ? अव्वल तो उसे देसी घी हजम ही नहीं होगा और यदि हो भी गया तो क्या, ये ऋणदाताभाई उन ‘भाईलोग‘ से भी रिलेशन रखते हैं, इधर एडवांस चैक बाउन्स हुआ उधर चार सौ बीसी का का केस तैयार । 
एक मध्यमवर्गीय परिवार दो तीन किस्तों को चुकाने के बाद ही उस क्षण को कोसने लगता है, जिस क्षण लोन पर कार खरीदी थी। सपनों की कार की किस्त चुकानी उनके लिए दुःस्वप्न बन जाती है ।  अपनी मीलों चलती मुस्कान वाली बाईक, महीनों लम्बी किस्तों में बदल जाती है । सपनों से, अपने प्यारे से घर में घुसते ही लोनदाता का एजेन्ट तैयार मिलता है ।  आम आदमी के खास सपने चूर-चूर होने लगते हैं, जिन्दगी की गाड़ी किस्तों के गड्ढों पर कूदने लगती है।  दो-तीन किस्तें न भरने पर लोन से ली गई सम्पत्ति पर लोनदाता का अधिकार हो जाता है, और आम आदमी अपनी आम आदमीयत की परम्परा निभाते हुए शोषित होकर हाशिये पर आ जाता है। इसीलिये तो अपुन कहते हैं कि आम आदमी को सपने देखने का पूरा अधिकार है, लेकिन सपने पूरे करने का कोई अधिकार नहीं है, क्यों कि आम आदमी के इन सपनों को पूरा करने का रास्ता ऋणदाता  की गलियों से होकर निकलता है, जिसका कोई छोर नहीं ।  तो भाईजान, बच सकते हो तो बचो ।  हो सकता है, आने वाले दिनों में गली-गली ठेला लेकर ये लोग आएं और चिल्लाएं,‘‘लोन ले लो,,,,लोन‘‘ 
  
 

Thursday, March 4, 2010

बोये पेड आतंक का तो अमन कहां ते होय

बोये पेड़ ‘आतंक‘ का तो ‘अमन‘ कहां ते होये

पाकिस्तान के हुक्काम बौखलाये हुए हैं। अमेरिकी भीख के मोहताज बनी पाकिस्तानी सरकार बेमन से तालिबानियों के विरूद्ध युद्ध कर रही है। जिस प्रकार गली के श्वानों को ‘उश..उश‘ कर भौंकने के लिए उकसाया जाता है, ठीक वैसा ही अमेरिका पाकिस्तान सरकार को ‘उश..उश‘ कर तालीबानियों के खिलाफ लड़ने के लिए उकसा रहा है। 
पाकिस्तान में आए दिन बम धमाकों की खबरें आ रही है। मौत के आगोश में समाने वालों की तादाद बढती जा रही है। पाकिस्तान ने जिस दहशत का बीज लगाया था, मासूमों के खून से वर्षो सींचा था, वही बीज अब दहशत का विशाल पेड़ बन चुका है। ठीक ही तो है बोये पेड़ बबूल का तो आम कहां ते होय। पाकिस्तान अपने ही बनाये भस्मासुरों की कैद में है। इस्लामाबाद, पेशावर, लाहौर या कराची पाकिस्तान का कोई शहर महफूज नहीं रह गया है। 
ये बदकिस्मती ही होगी उस मुल्क की कि जहाँ के लोग अमन को तरस रहे हैं और हुक्काम बेसिर पैर के निर्णयों से अवाम के लिए मुश्किल दर मुश्किल खड़ी कर रहे हैं। वजीरिस्तान में एक लाख लोगों के लिए जीवन-मृत्यु का प्रश्न खड़ा हो गया है। हजारांे लोग बेघर हो गये हैं। उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। पाकिस्तान सेना आज भी सरकार से बड़ा रूतबा रखती है। जब आतंकियों ने सेना के मुख्यालय, आई एस आई के इन्टेरोगेशन सेन्टर में भी हमला किया तो सेना ने आखिरकार वजीरिस्तान में कार्यवाही आरम्भ की। तालीबान को पाकिस्तान ने जितना कमजोर समझा था उतने वे थे नहीं। यदि कोई ग्रुप सेना मुख्यालय पर कब्जा कर बंधक बना सकता है तो यह एक गंभीर संकेत था। पाकिस्तानी सेना को समझ में आ रहा है कि अब आर या पार की लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी। यहाँ एक बात बड़ी रोचक है। पाकिस्तान तालीबान के सभी कमाण्डरों के विरूद्ध हमला नहीं कर रहा है बल्कि जो पाकिस्तानी सेना के कहने में नहीं है उन्ही के खिलाफ कार्यवाही की जा रही है। पहले वजीरिस्तान में मौलाना फजलुल्लाह से समझौता किया गया। ये समझौता अवाम की आजादी को गिरवी रख कर किया गया था। इसके बाद सोचा गया कि सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा। लेकिन तालिबान की नजरें पूरे पाकिस्तान पर थी। तालीबान एक सोची-समझी रणनीति के तहत हमले पर हमले कर रहा है। अन्ततः अमेरिकी दबाव ने पाकिस्तान को तो मजबूर कर दिया कि वो तालीबान के खिलाफ कार्यवाही करे लेकिन पाकिस्तान ने तालीबानियों के सामने विकल्प रख दिया-या तो हमारी गोली से मरो, या कश्मीर में जाकर ‘जिहाद‘ लड़ो। तालीबान प्रमुख हकीमुल्ला का हालिया बयान-‘हम पाकिस्तान को इस्लामी मुल्क बनायेंगे और उसके बाद इण्डिया के बॉर्डर पर लडे़गे‘, इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। भारत के लिए यह खतरे की घंटी है। हमें तत्काल ही सर्तक हो जाना चाहिये।
यह विडम्बना ही है कि दुनियां का सबसे खतरनाक, बिगड़ैल, आतंक का कारखाना और वह भी परमाणु शक्ति से सम्पन्न देश हमारा पड़ोसी है जिसके घर की लपटें हमारे मुल्क को भी झुलसा सकती है। अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी के पास विकल्प सीमित-दर-सीमित होते जा रहे हैं। पाकिस्तान विश्व शांति के गले में एक एसी हड्डी बन चुका है, जिसे ना तो निगला जा सकता है और ना ही उगला जा सकता है। बेसिरपैर निर्णय लेते राष्ट्रपति, असमंजस में वजीरे आजम, झूठ पर झूठ बोलते सूचना मंत्री और रहस्यमयी मौन धारण किये हुए सेनाध्यक्ष कियानी। क्या ऐसे मे आशा की जा सकती है कि यह देश उबर पायेगा। बेशक नहीं। भारत के पंजाब, कश्मीर, दिल्ली, मुम्बई में हजारों का खून बहाने वाले आतंकियों के सहयोगी पाकिस्तान को अब हर दिन खुद ही के मुल्क में हो रहे धमाकों से मरने वाले अनजान लोगों की चिल्लाहटों सुनाई देती होगी और शायद अहसास भी होता होगा कि ‘‘बोये पेड़ ‘आतंक‘ का तो ‘अमन‘ कहाँ ते होये‘‘

Monday, February 15, 2010

पाकिस्‍तान जी, हम बातचीत के लिए तैयार हैं

पाकिस्तान जी, हम बातचीत के लिए तैयार हैं

मुम्बई, भारत पर 26/11 के हमले के बाद चैदह महिनों की बातचीत विहीन किंतु पाकिस्तान पर दबावपूर्ण चुप्पी से भारत ने दुनियां भर का समर्थन हासिल कर लिया था। पाकिस्तान विश्वमंचों  पर भारत को बातचीत के लिए गुहार लगा रहा था। सार्क सम्मेलन के अन्तर्गत गृहमंत्री पी.चिदम्बरम अगले महिने पाकिस्तान जाने वाले थे। पाकिस्तान पर पूरी तरह दबाव था कि अचानक भारत के कर्णधारों को ना जाने क्या सूझी कि पाकिस्तान को बातचीत के लिए औपचारिक निमंत्रण भेज दिया। भईये, इतनी क्या जल्दी थी, आखिरकार आपके गृहमंत्री जा ही तो रहे थे। बस फिर क्या था, पाकिस्तान ने इसे अपनी जीत के रूप में प्रचारित करना आरम्भ कर दिया। इतना महान देश अपने विचारहीन सरमायादारों के हाथों फिर लज्जित हुआ। पहले भी ऐसा हो चुका है। लालबहादुर शास्त्री ने भारतीय विजय को टेबल पर एक कागज का टुकड़ा मात्र बना कर रख दिया और भारत द्वारा विजित क्षेत्र पाकिस्तान को लौटा दिया गया। उसी पाकिस्तान ने भारत के आधे कश्मीर पर कब्जा कर रखा है। यही नहीं, भारत के दुसरे दुश्मन राष्ट्र चीन को नाजायज रूप से भारतीय जमीन ही उपहार के रूप में भेंट कर रखी है। उसी पाकिस्तान से मनमोहन सिंह ने बातचीत के द्वार फिर खोल दिये। आम भारतीय ये समझना चाहता है कि आखिर भारत को क्या पड़ी है उस देश से कोई भी बातचीत करने की जिसके हाथ खून से रंगे हैं, हजारों निदोष और मासूम भारतीयों के खून से। किसे पड़ी है कि वो पाकिस्तान से बातचीत करे, और करे ही क्यूं। बहुत हो लिया नाटक दोस्ती के नाम का। जिस देश की नींव नफरत की हो, बीज घृणा के हों, तो पौधा प्रेम के फल और दोस्ती के फूल कैसे खिला सकता है। क्या ये छोटी सी बात हमारे हुक्मरानों के समझ में नहीं आती ? वर्षो से सीमाओं पर हमारे जवान शहीद होते रहे हैं, होते जा रहे हैं। क्यों ? किसलिए ? क्या कभी किसी एक शहीद के घर के हालात जानने का प्रयास भर भी करते हैं ये तथाकथित दोस्ती को बढ़ावा देने वाले तत्व ? क्यों खुशहाल जवानी को छोड़ कर हमारे जवान शहीद होते रहें ? केवल इसीलिये कि बाद में हम उन्ही लोगों से दोस्ती की पींगे बढाते रहें जिनके कारण हमारे सैनिक शहीद होते रहें। बातचीत की तारीख फाईनल हुई और एक और धमाका हुआ इस बार पुणे में मासूम मारे गये। भला किन्हे पड़ी है कि कौन जीता है, कौन मरता है। अपने इण्डिया में तो सब, बस यूंही चलता है। लेकिन कब तक..............................................
थोड़ा और पीछे चलें,‘पिपल टू पिपल‘ सम्पर्क के नाम पर हमने समझौता एक्सप्रेस और थार एक्सप्रेस को शुरू करवा डाली। अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का हमने ऐसा काम किया जिसका भुगतान हमंे लम्बे समय तक करना पड़ेगा। करोड़ों रूपये के जाली नोट ये पाकिस्तानी नागरिक भारत में लाते हैं। कुछ पकड़े जाते हैं और कहना न होगा कि बाकि पकड़े नहीं जाते। कई भारत मे आकर रहस्यमयी रूप से गायब हो जाते हैं। बाद में देश की जड़ों को कमजोर करने के काम में जुट जाते हैं। कहीं आतंकवादी बन कर प्रकट होते हैं तो कहीं जासूस बन कर। समझ नहीं आता कि काहे ‘समझौता‘ और काहे की ‘थार‘ जब पाकिस्तान बन रहा है मासूम हजारों निर्दोषों को मार। 
और हमे क्या पड़ी है कि हम उनसे बातचीत करें जिनका एक मात्र ध्येय भारत का विखण्डन करना है। जिसके पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ के हाथ कारगिल के शहीदों के खून से सने हैं, जिसके सेनाध्यक्ष जनरल कियानी  जो पूर्व में आईएसआई के मुखिया रहे थे, जो मुम्बई हमलों का षडयंत्रकारी है, उस देश से क्यों कर करें हम बात। अण्डरवल्र्ड मुखिया दाउद इब्राहीम, मैनन, छोटा शकील आदि आदि भारत के दुश्मनों को पनाह देने वाले, मुम्बई हमलों के मुख्य आरोपी हाफिज सईद की ढाल बन कर खड़े होने वाले मुल्क से दोस्ती की बात करना भी सरासर गलत है। दोस्ती के नाम पर जिस मुल्क ने हमेशा भारत की पीठ मे छुरा भौंका है उससे शराफत की उम्मीद करना कहां की अक्लमंदी है। काश! बातचीत के लिए ज़मीन तैयार करने वाले जनप्रतिनिधि, साहित्यकार, कार्यकर्ता, कलाकार आदि आदि के कोई प्रियजन शहीद तो होते। तब ही उन्हे अहसास होता कि उनके दिल पर क्या गुजरती है जब पाकिस्तान से दोस्ती की बात होती है। क्या कोई जवाब एक आम भारतीय को मिलेगा ? शायद नहीं। हाँ, जवाब पाकिस्तान जरूर देगा, ये पक्का है- एक और आतंकवादी हमले के रूप में। तो आईये दोस्ती की बात आरम्भ करें और इंतजार भी आरंभ करें एक और हमले का। क्यों कि आखिरकर हमने कह दिया है -पाकिस्तानजी हम बातचीत के लिये तैयार हैं। 

Monday, February 1, 2010

ना हल्‍ला मचाओ, ना आवाज ही दो, अभी मुल्‍क मेरा सोया हुआ है

भारत की महानता का बखान करने वाले हम करोड़ों करोड़ नागरिकों में आज यह भाव दिलो दिमाग में कहीं न कहीं शंका का बीज सिंचित कर रहा है कि कहीं हम असुरक्षित तो नहीं होते जा रहे। भारत विरोधी तत्व अपनी जड़ें तो कभी के जमा चुके थे, अब तो वो उन्हे गहरी, और गहरी कर रहे हैं। भारत की सीमाओं पर चीन घुसपैठ करता हुआ आँखंे दिखा रहा है। अरूणाचल प्रदेश, त्रिपुरा को तो वो भारत का हिस्सा ही नहीं मानता। भारत में यह आम धारणा है कि चीन से शत्रुता को लम्बा नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या हम कोई ऐसा कदम नहीं उठा सकते जिससे चीन को यह तो कम से कम अहसास हो कि भारत अब 1962 वाला मुल्क नहीं रह गया है। क्यों नहीं भारत में आने वाले अरबों-खरबों रूपये के ‘मेड इन चाईना‘ के उत्पादों पर रोक लगाई जाए। ये उत्पाद वैसे भी भारतीय अर्थ व्यवस्था को रसातल में डालने के लिए आ रहे हैं। लेकिन हमारे कर्णधार सो रहे हैं। बात पाकिस्तान की करें तो पाकिस्तान हमारी सीमाओं में आतंकवादियों की घुसपैठ करवा रहा है। ये सब जानते हैं, हम भी, और अमेरिका भी। लेकिन हो ये रहा है कि अमेरिका पाकिस्तान की सहायता को बढाते बढाते तिगुनी कर चुका है। यह कोई सामान्य बुद्धि वाला बालक ही समझ सकता है कि पाकिस्तान को दी गई हर सैन्य सहायता का उपयोग अल कायदा या तालीबानियांे के विरूद्ध नहीं बल्कि भारत के विरूद्ध किया जाता रहा है और किया जायेगा। इसके लिए पाकिस्तान कृत संकल्प है। क्यों नहीं भारत अमेरिका के सामने इस पार या उस पार वाली कूटनीति अपनाता। बेशक भारत ज्यादा कुछ नहीं कर सकता लेकिन विश्व परिदृश्य में निरन्तर बयानबाजी कर एक माहौल तो बना सकता है। लेकिन नहीं हम तो सो रहे हैं। भारत के पड़ोसी नेपाल में भारत विरोधी हवा को भड़काया जा रहा है। नेपाल की राजनीति में एक नया फैशन भारत विरोध का उभर रहा है। अरबों डॉलर्स की प्रतिवर्ष की भारतीय सहायता प्राप्त करने वाला नेपाल भारत को भड़का रहा है। ये तो वही मिसाल हुई कि ‘‘हमारी बिल्ली हमीं को म्याऊं।‘‘ विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा लगाये भारत ने कभी म्यानमार में लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयास नहीं किया। उलटे म्यानमार के फौजी शासकों से सामान्य संबंध बनाये रखे। भारत की खामोशी ने चीन के हौसले बढाये और अब म्यानमार में चीनी दखल बढ रहा है। बांग्लादेश की बात करें तो इसने नया ही तरीका अपने देश के गरीबी मिटाने का निकाल लिया है। बांग्लादेश अपने भूखे-नंगे नागरिकों को भारत में धकेल रहा है। बांग्लादेश से सटी भारतीय सीमा से करोड़ों बांग्लादेशी भारत आ चुके हैं। वो वर्षो से यहां रह रहे हैं और अधिकांश ने अपने भारतीय होने के कागजात भी बनवा लिये हैं। क्या आपको हैरानी नहीं होती यह तथ्य जानकर कि आसाम विधानसभा की कई सीटों का निर्णय बांग्लादेशी करते हैं। और तो और इनकी तरफदारी के लिए भी सत्ता के दीवाने मौजूद है। आखिर हम कर क्या रहे हैं। क्या यह प्रश्न बुद्धिजीवियों को असहज नहीं करता कि भारत को चारों तरफ से घेरा जा रहा है ? हाल ही में लीबीया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी ने और कहीं नहीं बल्कि युएनओ में भाषण दे डाला कि कश्मीर को अलग राष्ट्र बना देना चाहिए। हमारे नीति निर्धारकों ने इसका विरोध करना तो दूर रहा, अपनी प्रतिक्रिया तक नहीं दी। क्या भारत ‘‘साफ्ट स्टेट‘‘ बनता जा रहा है, जिसके बारे मे जिसके जो जी मे आए कहे, बके क्यों कि हम तो मामले को तूल ही नहीं देना चाहते। मनमोहन सिंह सरकार के द्वितीय कार्यकाल में विदेश नीति अब तक पूरी तरह असफल रही है। हमारे विदेशमंत्री को यह तक नहीं मालूम कि कब बोलना चाहिये, कब चुप्प रहना चाहिये और कब धमकाना भी चाहिये। देश में जब सलमान खुर्शीद, जयराम रमेश, कपिल सिब्बल जैसे कुटनीतिज्ञ मौजूद थे जब क्या जरूरत थी कि उम्र की आखिरी ढलान पर बैठे व्यक्ति को विदेश मंत्री बना दिया गया। भारत की स्थिति महाभारत काल के अभिमन्यू की तरह हो गई है जो चक्रव्यूह में घिर चुका है और उसे नहीं मालूम कि बाहर कैसे निकला जाये। बहरहाल हम तो चुप हैं और हमारा देश सोया हुआ है। किसी ने ठीक ही कहा है -‘‘ना हल्ला मचाओ, ना आवाज़ ही दो, अभी मुल्क मेरा सोया हुआ है।‘‘


Tuesday, January 19, 2010

कश्मीरी पंडितः
कुछ याद उन्हें भी कर लो......जो लौट के जा नहीं पाए
आज 19 जनवरी है, कश्‍मीर से हिन्‍दुओं को मार भगाने के पूरे दो दशक पूरे हो गये है,हर वर्ष की तरह यह वर्ष भी गुजर जाएगा जबकि कश्‍मीर की वादियों में हिन्‍दुओं की यादगारें मातम मना रही होंगी कश्मीर के अलग-अलग स्थान पर स्थित विभिन्न देवी-देवताओं के सैकड़ों मन्दिर बिना पुजारी पूजे जा रहे हैं। कहीं निर्मल, ठण्डी हवाएं आरतियां गातीं हैं तो कहीं तेज हवा के सांय-सांय करते झोंके जंग लगी जंजीरों से लटकी घंटियों को सहला जाते हैं। बरसात की मोटी मोटी बूदें इन मूर्तियों को कभी-कभी पवित्र स्नान करा जाती हैं, तो सर्दियों में बर्फ इन प्रतिमाओं को धवल वस्त्र धारण करवा देती है।  उजाड़ मन्दिरों में जैसे श्रद्धालुओं के मार्ग को अपलक निहारती ईश प्रतिमाएं आज भी अपने पुजारियों का इंतजार कर रही है। कभी इन मंदिरों की रौनक देखते ही बनती थी। तीज-त्यौहार पर हिन्दुओं के विभिन्न रंगबिरंगी संस्कृति से सराबोर आयोजन भारत की अलबेली सांस्कृतिक को जीवन्त कर दिया करते थे। इस्लाम और हिंदु संस्कृति का अनूठा सामन्जस्य कश्मीर की अनोखी धरोहर हुआ करती थी। लेकिन अफसोस, आज कश्मीरी पण्डितांे की इस जन्मभूमि में उनके आराध्य देवों का नाम लेने वाला कोई नहीं है।
डेढ़ दशक पूर्व कश्मीरी पंडित आतंकवादियों की गोलियों से बचते-बचाते कश्मीर से निकलने आरम्भ हुए। प्रारम्भ में कुछ हिम्मती पंडितों ने अपने मुस्लिम पड़ोसियों के साये में कश्मीर में ही रहने का साहस किया। आतंकवादियो ना पंडितों को जिन्दा छोड़ा ना ही उनका संरक्षण करने वाले मुस्लिम पड़ोसियों को। आतंकवादियों के पाकिस्तानी आकाओं ने इस बात को समझ लिया था कि इस देश को केवल मजहब के आधार पर बांटा जा सकता है। यही भेद की नीति उन्होंने कश्मीर में सफल कर दिखाई।
1989 में कश्मीर मे दहशतगर्दों ने कश्मीरी पंडितों के नेता टिक्का लाल टपलू की नृशंस हत्या कर दी थी। उसके बाद कश्मीरी पंडितों का जैसे कत्ले आम ही शुरू हो गया। जिस कश्मीर की रज को कश्मीरी पंडितों ने सदा सिर पर धारण किये रखा यही धरती उनके रक्त से लाल होती चली गई। एक-दो साल के अन्तराल में ही दो से ढाई लाख कश्मीरी पंडित दिल्ली आ गए। कभी जिनका वैभव अपने प्रदेश में हुआ करता था, वे फुटपाथ पर आ गए। आरम्भ में तो इन्हे बचाने के लिए कुछ इंसान आगे आए लेकिन दहशतगर्दो ने एक-एक करके सारे रास्ते बंद कर दिये। इसके बाद का काम किया लालच ने। पड़ोसी इन पंडितों के घरों पर कब्जा करने लगे। शेष रहे घरों को जला दिया गया या नष्ट कर दिया गया।
विस्थापित शिविरों में अपने परिवार का जैसे-तैसे भरण-पोषण करने वाले इन पंडितों की किसी को सुध नहीं है। देश की सबसे बड़ी पंचायत के धणी कश्मीरी पंडितों से मुँह फेर बैठ गए। हालात ये है कि इनकी बात करना भी जैसे धर्म निरपेक्ष देश में अनुचित हो गई है। इन्होंने अपने पंजीकरण की मांग जार्ज फर्नान्डिस से लेकर शिवराज पाटील तक रखी लेकिन सब व्यर्थ। अपने ही घर से बेघर किये गये इन लोगों को नहीं मालूम कि जीवन के किस पड़ाव तक इन्हे तम्बुओं में ही बसर करनी होगी। बगैर किसी राहत या सहायता के ये रामभरोसे बस जीये जा रहे हैं।
डेढ दशक की इस अवधि में दुनिया की ‘‘जन्नत‘‘ से बेदखल किये गये इन मूल निवासियों में से अनेक अपने घर के लौटने की आस लिये चल बसे हैं। आज हालात ये है कि कश्मीर समस्या के समाधान किये जाने के विभिन्न बिन्दुओं में कश्मीरी पंडितों का कोई जिक्र तक नहीं है, हिस्सेदारी का तो सवाल ही कहां उठता है। डेढ सौ लोगों के हत्यारे कसाब के लिए इस धर्म निरपेक्ष देश में लाखों रूपये की फीस अदा कर सरकार वकील का इंतज़ाम करती है, लेकिन ढाई लाख लोगों के दर-दर भटकने के लिए सहानुभूति के दो शब्द तक नहीं। श्रीलंका में तमिलों के लिए तत्काल पाँच सौ करोड़ की सहायता प्रदान करने वाले इस बड़े देश के पाषण हृद्यय में कश्मीरी पंडितों के लिए क्या कुछ भी नहीं है। मानवाधिकार के बड़े-बड़े कार्यकर्ताओं को कश्मीर के ये पंडित दिखाई ही नहीं पड़ते क्योंकि इनसे कोई इन्हे कोई फायदा नहीं होने वाला। धर्म निरपेक्षता की दुहाई देने वाले इस मुल्क में कोई तो बोले, कोई तो जागे, कोई तो इन कश्मीरी पंडितों की आहों को सुने। अफसोस, ऐसा कोई नहीं है। हैरत की बात तो ये है कि कश्मीरी पंडितों के लिए बोलने वाले लोगों को ‘अन्य नज़र‘ से भी देखा जाने लगा है। अपने घरों की कोमल यादों को सहलाते कश्मीरी पंडितों के के मन में यह आस फिर भी जिन्दा है कि-कुछ याद उन्हे भी कर लो...जो लौट के जा ना पाए‘‘


Tuesday, January 12, 2010

थोडी देशभक्ति भी आयात हो चायना से

थोड़ी देशभक्ति भी आयात हो चाईना से इन दिनों बाज़ार चाईनीज आईटम्स से भरे पड़े हैं। खिलोने, लाईटें, टीवी, चॉकलेट्स, मोबाईल, पिचकारी, पटाखे, लाईट्स और यहां तक कि टायर भी। सब के सब सस्ते और किन्ही मायनों में भारतीय उत्पादों से बढिया भी हैं। सस्ते के चक्कर में खूब बिक भी रहे हैं। चाईना से आयात बढता जा रहा है। बात चाईना से सामग्री के आयात की चल पड़ी तो ऐसा क्यांे न हो कि हम चाईना से देशभक्ति और वतन सर्वोपरि के जज्बे को भी थोड़ा आयात कर लें। यकिनन इसके लिए किस बन्दरगाह, किसी हवाई पोर्ट की आवश्यकता नही रहेगी। चीन के नागरिक देश के लिए, देश की इज्जत के लिए किसी भी हद से गुजर जाते हैं। लोकतंत्र को सात दरवाजांे के पीछे कैद रखने वाले एशिया के इस भारी-भरकम आकार वाले देश मंे हर नागरिक जुटा हुआ है, लगा हुआ है। अपने देश के नागरिकों को शेष दुनिया से अलग-थलग रखने की उनकी ‘आयरन कर्टेन‘ की नीति की निरन्तर आलोचना होती रही। इन सबके उपरान्त आज चीन दुनिया का एक रसूख वाला मुल्क समझा जाता है। यह सब कुछ एक दिन में नहीं हुआ। दुनिया भर की आलोचना को दर-किनार रख कर उसके नागरिक अपने देश को शीर्ष पर ले जाने के लिए जुटे हुए हैं। अभी कुछ वर्षो पहले ही चीन मंे पहली बार मिस युनिवर्स प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था। बाहरी दुनिया ने पहली बार चीन को वास्तविक रूप से देखा। इसके बाद सदी का भव्यतम खेल आयोजन ओलम्पिक का आयोजन राजधानी बीजींग मंे हुआ। पश्चिमी दुनिया के खिलाड़ी, प्रबंधक चीन की तैयारियों को देखकर भौंचक्के रह गए। चीन ने अपने अन्दर ही एक भव्य दुनिया का निर्माण कर लिया। चीन की दीवार जिस मुश्किल से बनाई गई थी उससे कहीं ज्यादा मुश्किल उसे बनाये रखना रहा और इसके लिए चीन ने अपने समस्त संसाधन झांेक दिये और इसे एक पर्यटक स्थल के रूप मंे विकसित किया। इससे लाखों डॉलर्स चीन की जेब में आने संभव हो सके हैं। चीन के लोंगों ने दुनिया को उन्होने दिखला दिया है कि लोकतंत्र ही विकास की पहली शर्त नहीं है। नागरिकों में देशभक्ति का जज्बा सबसे आवश्यक अंग होना चाहिए ये चीन ने साबित कर दिखाया है। चीन के लोग हर सूरत में चाईनिज भाषा ही बोलते हैं, अंग्रेजी बिल्कुल भी नहीं। यदि आपको उनसे संवाद करना है तो आपको चाईनीज भाषा आनी चाहिए, वे आपकी भाषा नहीं सीखते। अपने नगर की सड़कों, इमारतों, पर्यटन स्थलों, अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति चीन के लोगों में जबर्दस्त अनुराग है। वे अपने अपने कत्र्तव्य के प्रति सावचेत रहते है। और यही तत्व उन्हे हमसे श्रेष्ठ बनाता है। भारत में जहां जनसंख्या एक अभिशाप है वहीं चीन के लोगों ने अपने मानव संसाधन का बेहतरीन उपयोग किया है। जनसंख्या नियंत्रण वहां सरकारी महकमों के भरोसे नहीं बल्कि नागरिकों की चिन्ता के कारण संभव हो पाया है। जहां हमारे देश में ‘‘हम दो हमारे दो‘‘ का नारा और सिर्फ नारा लगाया जाता है वहीं चीन में ‘शेर का बच्चा, एक ही अच्छा‘ नारे की पालना की जाती है। न की जाए तो जुर्माना और एक हद तक शर्मिंदगी का बायस भी बनना पड़ता है। अब बात आतंकवाद की। दुनिया के हर हिस्से में आतंकवाद अपनी जड़ें जमा रहा है। चीन में भी सीक्यांग प्रान्त में आतंकवादियों ने सिर उठाया था। यहां उनकी दाल न गली, उन्हे कोई समर्थन नहीं मिला और चीन की सेना ने आतंकवादियों को जड़ों से उखाड़ फेंकने में सफलता पाई। चीन की इस हैरत अंगेज सफलता के पीछे वास्तव में उसके नागरिकों की अपने कत्र्तव्य के प्रति अनुशासन की पिलाई घुट्टी है । हम भारतीयों की चर्चा करें तो हम अपने अधिकारों के प्रति तो पूर्णतया जागरूक रहते हैं लेकिन साथ ही साथ अपने कत्र्तव्यों को बिसरा देते हैं। हम देशभक्ति के नारे बेशक दुनियां में सबसे ज्यादा तेज आवाज में लगाते हैं लेकिन ज़मीनी तौर पर अपनी अंतरात्मा में झाकें तो उसका पैमाना नगण्य है। भारतीय आज जब लगभग सभी कुछ चीन से आयात कर रहे हैं तो क्यों न थोड़ी वतन के प्रति जज्बे की भावना और उसे जीवन म उतारने का संकल्प भी चाईना से आयात कर लिया जाए।