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Tuesday, May 10, 2011

बीकाणै रो रंग-ढंग देख, प्रेम-भाव दरसाव देख सात भौम सूं प्यारौ देख, शहर बीकाणौ म्हारो देख


बीकानेर नगर ने अपनी स्थापना के 524वें पायदान पर अपने कुमकुम भरे पगलिये मांड दिये। शहरवासी आल्हादित और उमंग से सराबोर हैं। अपने गौरवशाली अतीत के साथ जीवन्त वर्तमान और सुनहरे भविष्य के मध्य इस शहर ने अपनी अल्हड़ता, मस्ती और तरंगित जीवनशैली के साथ अपना जन्म दिवस मनाया।
सरस्वती शब्दों के रूप में बीकानेर में सर्वत्र प्रवाहमान है। विरासत की यह शानदार परम्परा लिए बीकानेर नगर के साहित्य शिल्पिया के सृजन ने अपने शहर को अपनी सौगातें दी है। अपनी माटी, अपना नगर भला किस शब्दसंगती को गुणगान के लिए प्रेरित नहीं करता। बीकानेर भी भला अपवाद कहां है ? यह भावना तो आज बीकानेर वासियों के दिलों में हिलोरें मारती है कि -
जंगळ मंगळ देस म्हानै प्यारो लागै सा
ओ मरूधर वाल्हो देस म्हानैं आच्छो लागै सा
ऊँचा-ऊँचा धोरा ईंरा, उजळी निरमळ रेत
चम-चम चमके चाँदणी में ज्यूं चाँदी रा खेत
जी म्हानै चोखो लागै सा....
बीकानेर नगर के रचनाकारों ने अपने शहर का गुणगान अपनी शैली में किया है। मूर्घन्य साहित्यकार नरोत्तम दास स्वामी अपने नगर बीकाणा की स्तूति में भाव विभोर से हुए लगते हैं। अपनेपन की सौंधी अनुभूति सी उनके शब्दों से मुखर हो उठती है-
यह जंगल देस हमारा है, ये मंगल देस हमारा है
यह हमें प्राण से प्यारा है, बीकाणा देस हमारा है
पीली-पीली रेती में जब स्वर्ण किरणें लेकर,
आता प्रातः काल यहाँ, लहराता सोन का सागर है
यह जंगल देस हमारा है, ये मंगल देस हमारा है
ख्यातनाम आलोचक डॉ. नंद किशोर आचार्य गहनतम अर्थवान रचनाकर्म से मुल्क भर में खास स्थान रखते है। बीकानेर के गौरवशाली व्यक्तित्व आचार्य अपने शहर के लाडले लेखक हैं। अपनी रचनाधर्मिता के पथ पर अपने शहर बीकानेर की पगडण्डियां डॉ. आचार्य को प्रेरित करती रही हैं। उनकी कविता भी शहर को नये लेकिन गूढ अर्थों में पुनः परिभाषित करती हैः-
कदम कदम पर
चढ़ाईयाँ हैं या ढलाने
तंग गलियाँ हों या चौड़ी सड़कें
कहीं भी समतल नहीं है शहर
कवि झमण लाल व्यास यहां से भोले-भाले, निश्छल और दूसरों के दुख दर्द को अपने साथ बांट लेने की स्वाभाविक आदत वाले बीकानेर वासियों को नमन करते हैं और लिखते हैं-
बीकाणो ओ सहर आपणो, एकै री एक मिसाल है,
घाव लग्यां भी हंसतो रह्वै, इण रो हियो विसाल है
शहर का कला, साहित्य और संगीत का फलक विस्तृत, समृद्ध और कर्णप्रिय रहा है। कवि, कथाकार अब्दुल वहीद कमल ने इसी अनुभूतिपूर्व वैभव को शाब्दिक जामा पहनाया, लिखा -
बीकाणे भल निपजै साहित्य कला संगीत
हेतूलां घर सांतरो, घुरै ढोल जस गीत
शहर का धार्मिक सामन्जस्य नगरवासियों को गर्व का अहसास कराता है। यह वह भाव है जो इस शहर की तासीर भी है। लालचंद भावुक इसे यूं परिभाषित करते हैं-
राम का मंदिर यही, रहमान का घर है
यह मेरा नगर, मेरा नगर, मेरा नगर है
इसी जज़्बे के साथ युवा शायर, गीतकार वली मोहम्मद वली बीकानेर का पता बताते हैं -
कण-कण में खुद खुदा बिराजै, हर हिवळै में राम रै,
धोरां आळी इण धरती रो, शहर बीकाणौ नाम रै
जो विरासत यहां के युवाओं ने ग्रहण की वही उनकी काव्य में झलकती भी है। युवा कवि संजय वरूण के शब्द भी यही ध्वनि मुखरित करते हैं -
मंदिर की घंटी बजी उधर हुई अजान,
शहर मेरा पढने लगा, गीता और कुरान
बीकानेर को यदि किन्ही दो-तीन शब्दों में व्यक्त करने को कहा जाए तो इसे ‘अपणायत रो गाँव‘ कहा जा सकता है। यह संज्ञा देते हुए कवि हरीश बी. शर्मा बीकानेरवासी होने का गर्व करते हैं और सम्पन्नता की मंगल कामना भी करते हैं-
बीका थारो बीकाणो अपणायत रो गांव
मुरधर रो सरताज बणै भर्या र्हैवे हर ठांव 
साझी संस्कृति और सबकी साझेदारी, यही इस शहर का आधार है, वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मीनारायण रंगा इसे यूं बयान करते हैं
बीकानेर की संस्कृति सबका साझा सीर
दाऊजी मेरे देवता, नौगजा मेरे पीर
वैर-भाव से दूर का भी नाता नहीं रखने वाले बीकानेर को किसी की नजर ना लगे, इसी भाव के साथ युवा साहित्यकार नदीम अहमद ‘नदीम‘ लिखते हैं-
ताअस्सुब के ज़हर से दूर हमारा शहर
नफरतों के गुबार में मानिंद नूर हमारा शहर
होता है जब भी मूल्क मुब्तला दुश्वारियों में
करता है पेश मिसाल हर बार मेरा शहर
बीकानेर के पानी में ही कुछ ऐसा प्रभाव है कि यहां के निश्छल हृदय के सच्चे लोग हर किसी को अपने प्रेम से अपना बना लेते हैं। अज़ीज़ आज़ाद का ये शेर इस शहर की पहचान बन गया हैः-
मेरा दावा है, सब ज़हर उतर जाएगा
दो दिन मेरे शहर में ठहर के तो देख
ऐसे प्रेम भरे शहर के लिए भला क्यूं ना इठलाया जाए, इतराया जाए और क्यों ना अपने नगर का बखान किया जाए, शहर का रंग-ढंग, प्रेम, सद्भाव, अनूठेपन पर नाज़ करते हुए कहा जा सकता हैः-
बीकाणै रो रंग-ढंग देख, प्रेम-भाव दरसाव देख
सात भौम सूं प्यारौ देख, शहर बीकाणौ म्हारो देख