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Tuesday, October 18, 2016

इम्‍तेहान :: कहानी :: संजय पुरोहित

इम्तेहान
कहानी- संजय पुरोहित
छत्तरपुर नामक छोटा सा एक गांव। गांव की भुल-भुलैया सी पगडण्डियों के दोनों ओर चैकीदारी करते छोटे-बड़े पेड़। चैकीदारों की संगत में बैठी झाड़ियां और पसरी हुई सूखी पत्तियां और टहनियां। यहीं घर है मंगत का। पूरा नाम मंगतलाल योगी। इस घर में रहती है मंगतलाल की माई और पत्नी लछमी और एक बेटा भगत। मंगत को तो घर छोड़े अरसा हो गया। वह शहर में रिक्शा चलाता है। वह शहर में अपना आधा पेट पालता है और शेष बचा पेट काटकर कमाई घर भेजता है। वैसे घर कहना ठीक नहीं होगा, झोंपड़ी कहना ही ज्यादा ठीक होगा। स्थायी सम्पत्ति के नाम पर इस झोंपड़ी के अलावा एक पीपल का पेड़, बस। चल सम्पत्ति के रूप में लछमी की एक जोड़ी चांदी की पायल, दो खटिया, आठ दस बरतन और मंगतलाल की भेजी गई राशि के सौ सवा सौ रूपये। एक दौर में साढ़े बारह बीघा बारानी जमीन भी हुआ करती थी। जब बिटिया का गौना हुआ तो उससे पहले ज़मीन का भी गौना हो गया। मंगतलाल ने जमीन का सौदा अपनी खानदानी परम्परा निभाते हुए किया। उसके दादा के समय तो सौ बीघा हुआ करती थी। दादा ने बुआ के विवाह के लिये आधी जमीन बेची। पिता ने मंगत की बहन के विवाह के लिये फिर आधी जमीन को निपटा दिया। इसी परम्परा को निभाते हुए उसने पुरखों की सिकुड़ती जमीन को पूरी तरह सलटा दिया। जब भी ज़मीन बिकती, तो घर के मुखिया को भरोसा होता कि हमारा बेटा कमायेगा, तो फिर खरीद लेंगे। ना किसी बेटे ने ऐसी कमाई की, ना जमीन ही खरीद पाये। मंगत भी फकत पेट ही पालने तक अपने को समर्थ बना पाया। बस, यूं ही चल रही थी मंगतलाल योगी के कुनबे की छकड़ा गाड़ी।
हां, एक बात जो मंगतलाल के परिवार में जरा हट के थी। ये बात थी मंगत लाल का बेटा भगत। गांव की पाठशाला का सबसे मेधावी छात्र। गुदड़ी का लाल था भगत। जब से दसवीं पास की, उसके साथ ही परिवार को भी उम्मीद जगने लगी। उसने बचपन से ही अपने पिता को दाल-रोटी की जुगाड़ में पिसते देखा था। घोर विपन्नता में भी अपनी मां की जीवन की गाड़ी को घसीटने की अद्भुत कला को उसने करीब से देखा था। कभी सुबह, तो कभी शाम को बिन खाना जीवन जीने का महारथ भी उसने अपने परिवार में महसूस किया था। उसमें अपने परिवार को कंगाली के चक्रव्यूह से निकाल पाने की जबर्दस्त लालसा थी। जब से बारहवीं की पढ़ाई के लिये कस्बे की स्कूल में गया, मां की एक जोड़ी पायजेब भी खेत रही।  भगत को इन सभी बातों का अहसास था। उसे भरोसा था कि एक दिन ऐसा आयेगा जब वह कमाने लगेगा। बस, एक बार नौकरी लग जाये, तो सारे कष्टों से निजात मिल सकेगी।
जब भी भगत कस्बे की बस पकड़ने के लिये निकलता। मां और दादी उसे आंखों से ओंझल होने तक ताकती रहती। उन्हे यकीन हो चला था कि जैसा जीवन वे जीती आई हैं, उसमें बदलाव होकर रहेगा।
-माई, तु देखना, तेरा भगत खूब कमायेगा‘, लछमी अपनी सास को भरोसा दिलाती।
-हां री बहु, सुनते हैं, तीन पीढ़ी में भाग करवट लेते हैं। तीन पीढ़ी बाद तो कुभाग भी सुभाग बनने लगते हैं।‘ माई हामीं भरती।
उधर शहर में रिक्शा चलाते मंगत को भी अपने बेटे पर भरोसा था। बस इतना ही कि वो कम से कम रिक्शा तो नहीं चलायेगा। जब जब उसे पीड़ा घेर लेती, वह अपने बेटे भगत को याद करता। उसके शिथिल हुए पैरों में फिर ऊर्जा समा जाती। वह दुगुनी गति से पैडल मारने लगता। सवारियां इस कृषकाय की ताकत देखकर हैरान होती। मंगत दो-तीन महीनों में कभी-कभार गांव आता। बेटे भगत की पढ़ाई में रूचि देखकर उसके मन में भी भविष्य के सुखी जीवन की कोंपलें फूटने लगती।
जब भगत ने बारहवीं परीक्षा पास कर ली, तो मंगतलाल के कुनबे में खुशी की सीमा नहीं रही। इत्ती पढ़ाई तो उसके सात पुरखों में भी किसी ने नहीं की थी। खुशी से सराबोर माहौल में लछमी ने गुड़ का सीरा बनाया। आस-पड़ोस मंे खुद बांट कर आई। भगत पढ़ाई से उपजे दायित्व को समझ रहा था।
एक दिन जब भगत घर आया तो काफी खुश था। लछमी ने कारण पूछा तो बोला, ‘‘अम्मा, मैंने फौज में भरती का फाॅर्म भर दिया है। लछमी गौर से उसे देखने लगी।
-अम्मा, क्या सोचने लगी, अरे हिंदुस्तानी फौज में भर्ती लगी है।
-फौज में कित्ते रूपये मिलेंगे ? बोल तो जरा ?
-अम्मा, तु भी नां। अरे बहुत मिलेंगे।
-पर लल्ला, उसके लिये तुझे करना क्या होगा ?
-अरे मेरी भोली अम्मा, अभी इम्तेहान होगा। जब तेरा लल्ला इम्तेहान में पास हो जायेगा। तब दौड़ होगी। दौड़ में पार पा लिया तो नौकरी पक्की।
-नौकरी ?
-हां अम्मा। नौकरी। पक्की नौकरी। बस एक बार फौज में नम्बर लग जाये, फिर अपने रसोई में आटा-दाल के कनस्तर भरे रहेंगे। सब्जी भी खायेंगे अम्मा। तु देखना। खुशियों के दिन आयेंगे।
-सच लल्ला ?
-अरे हां अम्मा, हां।
लछमी ने अपने लाल की बलईयां ली। उधर माई मुळकती हुई अपनी बातों में पुरखो के इतिहास को ले  बैठ गयी।
-अरे भगत, तुझे पता है, तोहरे पड़दादा अंगरेजों की फौज में लड़ने दूर देस गये थे। उनके बाद कोई ना गया। तुने तो पड़दादा के नाम को रोशन कर दिया।
-अरे माई, अभी कहां किया है ? अभी तो फोरम भरे हैं, जब पास हो जायेगे तब ना !
-पास तो होवेगा। ये जो मैं सुमरण करती हूं, उसका कोई फरक ना पड़ेगा का ?
-पड़ेगा माई पड़ेगा। बस तू तो यूं ही राम जी को मनाती रहो।
माई ने उपर देखा और हाथ जोडे़।
कुछ और दिन गुज़रे। भगत की मेहनत रंग लाई। वह लिखित इम्तेहान में पास हो गया था। उसने आधी जंग तो जीत ही ली थी। अब दूसरा इम्तेहान बाकी था। इम्तेहान था दौड़ का।
भगत की कद-काठी कोई खास नहीं थी। वजन होगा यही कोई पचपन साठ किलो। लम्बाई पांच फीट से कुछ ज्यादा। भगत अपनी सीमाएं जानता था और ये भी जानता था कि असली इम्तेहान तो दौड़ ही है। दौड़ में नम्बर लगना उसकी पढ़ाई पर नहीं ताकत पर निर्भर करता था। भगत अपने जीवन की पहली लड़ाई में मात नहीं खाना चाहता था। उसने सुबह-सवेरे दौड़ का अभ्यास लगाना शुरू कर दिया। उसके शरीर का सामथर््य इतना था ही नहीं कि वह पांच सौ मीटर को एक बारगी में ही पूरा कर पाता। यही उसके लिये निराशा का कारण बन रहा था।
वह दौड़ शुरू करता। तीन सौ मीटर के बाद उसका सांस उठने लग जाता। पैर जवाब देने लगते। उसे न चाहते हुए भी रूकना पड़ता। उसका ध्येय उसे ज्यादा देर विश्राम नहीं करने देता। कुछ क्षण रूक कर वह फिर से दौड़ना शुरू कर देता। अपनी दौड़ में लगने वाले समय से उसे आशंका होने लगती कि कहीं उसका सपना तो टूट नहीं जायेगा। ये सपना उसका भी होता तो वह सहन भी कर लेता पर माता-पिता और दादी भी उसके इस सपने में गूंथ गये थे। यह ख्याल आते ही वह दुगुने जोश के साथ दौड़ने लगता। पर उसकी शारीरिक क्षमता की सीमा बार बार उसके आगे आ खड़ी होती।
एक सवेरे दौड़ लगाने के बाद निराश लौटे भगत को देखकर लछमी को कुछ संदेह हआ।
-क्या हुआ लल्ला ? चेहरा उतरा हुआ क्यूं है ? क्या हुआ ?
-कुछ नहीं अम्मा। बस जित्ता दौड़ रहा हूं, उससे पार न पड़ेगी।
-ये क्या कह रहा है ? कीत्ती तो दौड़ लगाता है। घर से झूलन के कुए तक। कुए से कस्बे की सड़क तक और वहां से फिर कुए और घर तक। फौज में क्या दौड़ने का ही काम है ?
-अरे ना अम्मा। पर फौजी के शरीर में ताकत होनी चाहिये कि ना ? बोल ? अब दौड़ने से ही तो मालूम पड़ता है ना कि कित्ता दम है शरीर में।
-अरे तो तु दौड़ तो रहा है। फिर काहे मुंह लटकाये है ?
-अरे अम्मा। दौड़ने से नहीं, फुरती से दौड़ने से काम बनता है। मैं दौड़ लगाता हूं पर फुरती से नहीं। दौड़ में मेरी सांस भर आती है। झूलन के कुए पर रूकना पड़ता है। ऐसे तो नहीं चलेगा ना ?
मायूस भगत झौंपड़ी के भीतर चला गया। लछमी और माई दोनो ही देर तक एक दूसरे को देखते-सोचते रहे। रात को दोनो महिलाओं ने मशविरा किया। दोनों के जीवन के अनुभव का सार इकट्ठा हुआ। अगले दिन जब भगत दौड़ कर आया तो अम्मा ने कटोरी में उसे गुड़ चना दिया।
-ये क्या है अम्मा ?
-अरे खा ले। माई कहती है कि गुड़-चना खाने से शरीर में ताकत आती है।
-पर अम्मा। गुड़ कहां से आया ? और चना ? ये कौन लाया ?
-तुझे उससे क्या ? ले खा ले।
लछमी ने जिस अधिकारपूर्वक मनुहार की, भगत फिर न पूछ पाया। उसने गुड़ चना की कटोरी ले ली और गोबर लीपी दीवार का सहारा लेकर बैठा और खाने लगा। दोपहर हुई। लछमी सूखी टहनियां चुगने जब बाहर गई तो उसने झोंपड़ी के किनारे पड़ी संदूक को खोला। मंगतराम के भेजे सवा सौ रूपये में से अब सिर्फ 20-30 ही बचे थे। भगत समझ गया कि उसको ताकत देने के लिये अम्मा ने इन रूपयो को स्वाह कर दिया था।
वह दिन आ गया, जब दौड़ होनी थी। लछमी ने कुंमकुम का टीका लगाकर, दही से मुंह चटा कर भगत को विदा किया। भगत जब कस्बे के स्टेडियम पहुंचा। वह यह देखकर हैरान रह गया कि बड़ी तादाद में युवक दौड़ के इम्तेहान के लिये आये हुए थे। अपनी दौड़ की तैयारी के संशय ने भगत को निराशा में डाल रखा था। यह भीड़ देखकर उसके हौसले पस्त होने लगे। जल्द ही उसने अपने आप को तैयार किया। जब उसे दिये गये नम्बर को पुकारा गया तो वह लाईन मे जा पहुंचा। भगत को अनजान भय घेर रहा था।
‘गेट-सेट-गो‘ यह ध्वनि सुनते ही सभी प्रतिभागी दौड़ पड़े। पहले सौ मीटर तक भगत आसानी से दौड़ लिया। उसकी गति दूसरों से काफी अच्छी थी। अगले सौ मीटर उसके लिये परेशानी भरे रहे लेकिन वह दौड़ता रहा। तीन सौ मीटर के निशान से चार सौ मीटर तक के निशान तक वह हांफने लगा।
एक सौ मीटर का फासला अभी भी बाकी था। उसे लगा कि वह अंतिम सिरे तक नहीं पहुंच पायेगा। उसने दौड़ना जारी रखा। उसके पीछे रहे युवक धीरे धीरे उसके करीब तक आये, फिर आगे निकलने लगे। भगत को लगा वह जीती हुई जंग हारने जा रहा है। उसका सपना टूटने वाला है। अचानक ही उसकी आंखो के सामने अपनी अम्मा लछमी का चेहरा घूमने लगा। कितनी आशा और विश्वास है उसे अपने बेटे पर। मां के चेहरे ने उसे फिर ऊर्जा दे डाली। वह कुछ कदम और दौड़ा। उसे दौड़ लगाने के साथ साथ अपने दुबले-पतले पिता का चेहरा याद आया। पिता का रिक्शा याद आया। रिक्शे को चलाते हुए पिता के पैर दिखे। भगत के पैरों में जैसे पिता के पैरों की ताकत भी समा गई। उसे लगा कि उसके पिता उसके साथ-साथ ही दौड़ लगा रहे हैं। भगत की दौड़ में तेजी आ गई। उसने अपनी जान झोंक डाली। दौड़ के समाप्ति बिन्दु की तरफ बढ़़ते हर कदम के साथ उसका हौसला बढ़ता रहा। वह बुरी तरह हांफ रहा था। सांस तो जैसे उखड़ कर बाहर आने को हो रही थी। उसने अपनी रही सही ताकत को निचोड़ा और अपने शरीर के अंतिम कतरे तक को झोंक डाला।
भगत के शरीर की ताकत पस्त हो चुकी थी पर वह दौड़ता रहा। दौड़ता रहा, दौड़ता ही रहा। उसके शरीर का सामथर््य जवाब दे चुका था। उसी क्षण भगत की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। उसे चक्कर आये और वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ा।
जब उसे होश आया, तो देखा। वह एक तम्बू में लेटा था। उसने चारों ओर अपनी नजर घुमाई। तम्बू अस्थायी अस्पताल का था। भगत मायूस था, उसकी आखों में आंसू थे। तभी सेना का एक अधिकारी उसके पास आया।
-भगत लाल ?
-जी
-कांग्रेट्स माई बाॅय। तुमने इम्तेहान पास कर लिया है। जिस समय तुम गिरे, आखिरी निशान पार कर चुके थे।
भगत के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। जिस दौड़ का इम्तेहान उसने पास किया था, उससे बड़ी दौड़ उसका परिवार जीत गया था। वह अम्मा को खुश खबरी देने के लिये बेताब हो उठा।