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Saturday, November 26, 2016

नोट बंदी - मोदी की नियति का दस्‍तावेज

नोट बंदी - मोदी की नियति का दस्‍तावेज
संजय पुरोहित

नोट बंदी पर बहुत दिनों से सूखी खबरें चलाने वाले उकताए न्‍यूज चैनलों के लिये मसाले का क्विंटलों माल मिल गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने इतना बडा कदम उठाया है जिससे सवा सौ करोड इंसानों वाले इस देश में हर कोई प्रभावित हुआ है। नरेन्‍द्र मोदी प्रचण्‍ड बहुमत से सत्‍ता में आये थे। किसी भी सरकार द्वारा कठोर कदम उठाने की प़ष्‍ठभूमि में उसका खुद का जनमानस पर आधार ही होता है। 238 के संसदीय आंकडे ने ही नरेन्‍द्र मोदी को यह साहस अथवा दुस्‍साहस भरा कदम उठाने का माद्दा दिया होगा। वर्ष 2016 के नवम्‍बर महीने की आठ तारीख और समय रात्रि आठ बजे। एक घोषणा ने भारतीय जनमानस की दैनिन्‍दिनी को उलट-पुलट कर रख दिया। निश्चित रूप से यह कदम साहसिक, जोखिमभरा और इस प्रधानमंत्री के लिये अकल्‍पनीय चुनौती भरा रहा होगा। नोट बंदी अचानक ही उठाया हुआ कदम तो कतई नहीं था। सरकार के कदमों को हम सिलसिलेवार रखें तो इसकी परत-दर-परत खुलने लगती है। इस कदम को उठाने एक लम्‍बी तैयारी का सुराग मिलता है, जिसका परिणाम अंतत नोट बंदी के रूप में हुआ। आप गौर कीजिये करोडों जन-धन खाते खुलवाने वाला क्‍वार्टर फाईनल जैसा पहला कदम, फिर 30 सितम्‍बर तक अपनी काली कमाई को उजागर करने के अल्‍टीमेटम वाला सेमीफाईनल जैसा दूसरा कदम। आखिरकार पांच सौ और हजार के नोटों को प्रचलन से बाहर करने का ग्राण्‍ड फिनाले। एक-एक कदम, सोचा-समझा हुआ। इस ऐतिहासिक कदम के कई फायदे तो तत्‍काल ही हो गये। सबसे बडा फायदा तो यह कि काले धन का सौ फीसदी हिस्‍सा तत्‍काल ही रददी बन गया। विदेशों से गुप्‍त फण्डिंग से चलते भारत विरोधी एनजीओ ठण्‍डे हो गये। हवाला के जरिये समानान्‍तर अर्थव्‍यवस्‍था चलाने का पूरा नेटवर्क ही तबाह हो गया। सटोरिये, काला बाजारिये फलक से अर्श पर धडाम से आ गिरे। आतंकियों को रूपया मुहैया कराने वालों के मूंह पर नोटबंदी का झन्‍नाटेदार चांटा पडा। कश्‍मीर में पत्‍थरबाजी बंद हो गयी।
अर्थशास्‍त्री इस कदम का पुरजोर समर्थन कर रहे हैं। उनके अनुसार अर्थव्‍यवस्‍था में नयी जान आनी तय है। रूपये का अवमूल्‍यन होना तो दूर आने वाले समय में रूपया जोरदार मजबूती से उभरेगा। इधर कदम उठाया गया, उधर राजनैतिक दल इसके पक्ष-विपक्ष को गुणते हुए अपने लाभ हानि को सूंघने लगे। आरम्भिक दिनों में तो किसी एक की भी इतनी हिम्‍मत नहीं हुई कि इस कदम का विरोध करते। समर्थक और विरोधी, सभी जनता की भावना से सहमे हुए सरकार के इस कदम का स्‍वागत कर रहे थे। मोदी के प्रति अटूट आस्‍था और अंध भक्ति के स्‍तर तक आये समर्थकों ने मोदी के इस कदम का इतना हल्‍ला मचाया कि जनता के कानों में मीठास की जगह कर्कशता ने ले लिया। यह बात तो सौ फीसदी सही है कि नोट बंदी से अंधभक्‍तों की श्रेणी में आने वाले समर्थकों की उर्जा में जनमानस की भावनाओं से उबाल आया, जो कि स्‍वाभाविक ही है। दूसरी ओर अंधविरोधी अपनी मानसिकता के वशीभूत विरोध करने की जुगत में जुट गये। विरोधियों को तो इसका काट ही नहीं मिल रहा था, अंधविरोधियों के शातिर दिमाग विरोध के लिये तर्क ढूंढने में लगे रहे, पर तर्क न मिले। एक सामान्‍य आकलन यह कहता है कि बीमार होती अर्थव्‍यवस्‍था के ऑपरेशन को टालते टालते रूपये की हालत खस्‍ता हो चुकी थी। किसी को तो यह कदम उठाना ही था। डॉ.मनमोहन सिंह अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी साल में उठा लेते तो हो सकता है जनता भ्रष्‍टाचार के खिलाफ जंग में उनके साथ खडी होती, हारना तो यों भी था, और यों भी। बहरहाल इस सरकार ने आखिरकार यह कदम उठाया। इतना विलम्‍ब से उठाया गया कदम अपने साईड इफेक्‍ट के साथ आना लाजमी था।

फिर कुछ और दिन गुजरे। जनता की बैंकों में लगी कतारें लम्‍बी, और लम्‍बी होती रही। आमजन आरम्भिक दिनों में अपनी भावना के साथ लाईनों में खडा था, वही धीरे धीरे उकताने लगा। उसका कारण आमजन का इस कदम का विरोध नहीं बल्कि नकदी की धीमी सप्‍लाई थी। कोढ में खाज कर रहे थे वे लोग जो कि येन केन प्रकारेण अपने धन को सफेद करने में लगे हुए थे। मोटे सेठों ने अपनी फेक्ट्रियों, होटलों, ढाबों, कोटडियों में लगे हुए मजदूरों को हर दिन दहाडी पर काले धन को सफेद करने में लगा दिया। पेट्रोल पम्‍प, हॉस्‍पीटल जैसे स्‍थानों को नोटबंदी से छूट इसलिये दी गयी थी कि आमजन को परेशानी नहीं हो। इन संस्‍थाओं ने बिल्‍ली के भाग का छींका टूटा मुहावरा चरितार्थ करते हुए काले को सफेद करना शुरू कर दिया। बैंककर्मी बेशक बहुत मेहनत भरा काम कर रहे हैं लेकिन उन पर प्रति दिन अंगुलियां उठने का कोई सबब तो रहा होगा। हर दिन सरकार कुछ आदेश लाती, हर दिन काले धन वाले नया रास्‍ता निकालते। जिन घरों में विवाह या महत्‍वपूर्ण अवसर है, उन्‍हे सबसे ज्‍यादा परेशानी हो रही है। लाईनें कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। धैर्य जवाब देने लगा है। खुशनुमा माहौल में आरम्‍भ हुआ समर्थन देने का हौसला धीरे धीरे कुछ लोगों में तो सुलगती भडास में बदलने लगा है। आमजन धीमे ही सही पर आक्रोश की ओर बढ रहा है। सौ बात की बात एक है और वो यह कि जनता परेशान है। है।। है।।।
          राजनैतिक विरोधियों को यही सुहाता है। परेशान जनता ही राजनीति का चूल्‍हा होती है। निराश, परेशान, थकी हुई जनता को सूंघते हुए राजनैतिक दल अब खुल कर नोट बंदी का विरोध करने में जुट गये हैं। लाईनों से मुददे मिलना संजीवनी की तरह बन गया है। अब नोट बंदी की घोषणा को वापिस लेने के लिये दबाव बनाने में जुटे हैं। ऐसा संभव ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। अब भारत एक ऐसे मार्ग पर चल पडा है, जिसकी कोई पगडण्‍डी नहीं है। इस राह से गुजरना ही होगा। समर्थन देते हुए या बकबक करते हुए। अंध विरोधियों और अंध भक्‍तों की भडास को अगर एक ओर रखकर वास्‍तविक धरातल पर इस घोषणा का विश्‍लेषण किया जाये तो कई बातें साफ साफ निकल कर आती है। आलोचना में कुछ तो दम है। नये नोटों की अस्‍तव्‍यस्‍त सप्‍लाई से इस कदम की धार कुंद हुई है। पर यह बात भी साक्षात नजर आ रही है कि जो अधिसंख्‍यक जनमानस बडी तादाद में इस कदम के समर्थन में रहा और अभी भी है किंतु वह अब उहापोह की स्थिति में है। आरम्भिक दिनों में उपजी यह समर्थन की भावना धीरे-धीरे अवरोह पर है। यह भी लग रहा है कि हर गुजरते दिन के साथ नोट बंदी सरकार के गले की फांस बनती जा रही है। भारतीय जनता ने नरेन्‍द्र मोदी को सशक्‍त भारत के लिये अपना मत दिया था। मोदी अपने इस कदम को इसी दिशा में बढने का प्रतीक बनाने में दिन रात एक किये हुए हैं।  जनता के मन में क्‍या है कोई नहीं जानता। जनता अब दो घंटे तक पक कर तैयार हुए रसीले व्‍यंजन का लुत्‍फ उठाने की बजाय दो मिनिट में नूडल्‍स खाना चाहती है। पांच दिन के टेस्‍ट मैच की जगह टवेंटी टवेंटी युग में आ चुकी है। जनता को रिजल्‍ट चाहिये जल्‍दी, जो कि इस सदी के महत्‍वपूर्ण कदम में संभव ही नहीं है। आज भी लोग लाईनों में खडे परेशान होते हुए भी इस कदम को सराह रहे हैं। पूरा का पूरा जनमानस मोदी के विरोध में नहीं बल्कि अधिसंख्‍यक लोग तो पूरजोर समर्थन में है। लेकिन साथ ही हो रही प्रतिदिन की परेशानियों से आम आदमी बौखलाया हुआ है। वह नोटबंदी का समर्थन तो कर रहा है किंतु व्‍यवस्‍था से पीडित है। एक दो महीने तक हालात ऐसे ही बने रहने की आशंका है, जब तक सब कुछ पटरी पर सामान्‍य चलने लगेगा तब तक देश विचलन की स्थिति में ही रहेगा।

अब नोट बंदी के बाद के डेढ-दो साल में नरेन्‍द्र मोदी को इसके फायदे आम जन तक दिखते हुए स्‍वरूप में पहुंचाने ही होंगे। रोटी, कपडा और मकान और पेट्रोल के दामों को न्‍यूनतम स्‍तर तक लाना ही होगा। तभी वह इसकी सार्थकता सिद्ध कर पायेंगे। मेरा निजी आकलन यह संकेत करता है कि नोट बंदी का यह कदम मोदी की नियति का दस्‍तावेज बनेगा। यह कदम आने वाले एक दो सालों में यह निर्धारण करेगा कि नरेन्‍द्र मोदी इतिहास में देश और सदी के सर्वश्रेष्‍ठ प्रधानमंत्री गिने जायेंगे अथवा सर्वाधिक असफल प्रधानमंत्री। बहरहाल लाईनें लम्‍बी हैं।