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Tuesday, January 19, 2010

कश्मीरी पंडितः
कुछ याद उन्हें भी कर लो......जो लौट के जा नहीं पाए
आज 19 जनवरी है, कश्‍मीर से हिन्‍दुओं को मार भगाने के पूरे दो दशक पूरे हो गये है,हर वर्ष की तरह यह वर्ष भी गुजर जाएगा जबकि कश्‍मीर की वादियों में हिन्‍दुओं की यादगारें मातम मना रही होंगी कश्मीर के अलग-अलग स्थान पर स्थित विभिन्न देवी-देवताओं के सैकड़ों मन्दिर बिना पुजारी पूजे जा रहे हैं। कहीं निर्मल, ठण्डी हवाएं आरतियां गातीं हैं तो कहीं तेज हवा के सांय-सांय करते झोंके जंग लगी जंजीरों से लटकी घंटियों को सहला जाते हैं। बरसात की मोटी मोटी बूदें इन मूर्तियों को कभी-कभी पवित्र स्नान करा जाती हैं, तो सर्दियों में बर्फ इन प्रतिमाओं को धवल वस्त्र धारण करवा देती है।  उजाड़ मन्दिरों में जैसे श्रद्धालुओं के मार्ग को अपलक निहारती ईश प्रतिमाएं आज भी अपने पुजारियों का इंतजार कर रही है। कभी इन मंदिरों की रौनक देखते ही बनती थी। तीज-त्यौहार पर हिन्दुओं के विभिन्न रंगबिरंगी संस्कृति से सराबोर आयोजन भारत की अलबेली सांस्कृतिक को जीवन्त कर दिया करते थे। इस्लाम और हिंदु संस्कृति का अनूठा सामन्जस्य कश्मीर की अनोखी धरोहर हुआ करती थी। लेकिन अफसोस, आज कश्मीरी पण्डितांे की इस जन्मभूमि में उनके आराध्य देवों का नाम लेने वाला कोई नहीं है।
डेढ़ दशक पूर्व कश्मीरी पंडित आतंकवादियों की गोलियों से बचते-बचाते कश्मीर से निकलने आरम्भ हुए। प्रारम्भ में कुछ हिम्मती पंडितों ने अपने मुस्लिम पड़ोसियों के साये में कश्मीर में ही रहने का साहस किया। आतंकवादियो ना पंडितों को जिन्दा छोड़ा ना ही उनका संरक्षण करने वाले मुस्लिम पड़ोसियों को। आतंकवादियों के पाकिस्तानी आकाओं ने इस बात को समझ लिया था कि इस देश को केवल मजहब के आधार पर बांटा जा सकता है। यही भेद की नीति उन्होंने कश्मीर में सफल कर दिखाई।
1989 में कश्मीर मे दहशतगर्दों ने कश्मीरी पंडितों के नेता टिक्का लाल टपलू की नृशंस हत्या कर दी थी। उसके बाद कश्मीरी पंडितों का जैसे कत्ले आम ही शुरू हो गया। जिस कश्मीर की रज को कश्मीरी पंडितों ने सदा सिर पर धारण किये रखा यही धरती उनके रक्त से लाल होती चली गई। एक-दो साल के अन्तराल में ही दो से ढाई लाख कश्मीरी पंडित दिल्ली आ गए। कभी जिनका वैभव अपने प्रदेश में हुआ करता था, वे फुटपाथ पर आ गए। आरम्भ में तो इन्हे बचाने के लिए कुछ इंसान आगे आए लेकिन दहशतगर्दो ने एक-एक करके सारे रास्ते बंद कर दिये। इसके बाद का काम किया लालच ने। पड़ोसी इन पंडितों के घरों पर कब्जा करने लगे। शेष रहे घरों को जला दिया गया या नष्ट कर दिया गया।
विस्थापित शिविरों में अपने परिवार का जैसे-तैसे भरण-पोषण करने वाले इन पंडितों की किसी को सुध नहीं है। देश की सबसे बड़ी पंचायत के धणी कश्मीरी पंडितों से मुँह फेर बैठ गए। हालात ये है कि इनकी बात करना भी जैसे धर्म निरपेक्ष देश में अनुचित हो गई है। इन्होंने अपने पंजीकरण की मांग जार्ज फर्नान्डिस से लेकर शिवराज पाटील तक रखी लेकिन सब व्यर्थ। अपने ही घर से बेघर किये गये इन लोगों को नहीं मालूम कि जीवन के किस पड़ाव तक इन्हे तम्बुओं में ही बसर करनी होगी। बगैर किसी राहत या सहायता के ये रामभरोसे बस जीये जा रहे हैं।
डेढ दशक की इस अवधि में दुनिया की ‘‘जन्नत‘‘ से बेदखल किये गये इन मूल निवासियों में से अनेक अपने घर के लौटने की आस लिये चल बसे हैं। आज हालात ये है कि कश्मीर समस्या के समाधान किये जाने के विभिन्न बिन्दुओं में कश्मीरी पंडितों का कोई जिक्र तक नहीं है, हिस्सेदारी का तो सवाल ही कहां उठता है। डेढ सौ लोगों के हत्यारे कसाब के लिए इस धर्म निरपेक्ष देश में लाखों रूपये की फीस अदा कर सरकार वकील का इंतज़ाम करती है, लेकिन ढाई लाख लोगों के दर-दर भटकने के लिए सहानुभूति के दो शब्द तक नहीं। श्रीलंका में तमिलों के लिए तत्काल पाँच सौ करोड़ की सहायता प्रदान करने वाले इस बड़े देश के पाषण हृद्यय में कश्मीरी पंडितों के लिए क्या कुछ भी नहीं है। मानवाधिकार के बड़े-बड़े कार्यकर्ताओं को कश्मीर के ये पंडित दिखाई ही नहीं पड़ते क्योंकि इनसे कोई इन्हे कोई फायदा नहीं होने वाला। धर्म निरपेक्षता की दुहाई देने वाले इस मुल्क में कोई तो बोले, कोई तो जागे, कोई तो इन कश्मीरी पंडितों की आहों को सुने। अफसोस, ऐसा कोई नहीं है। हैरत की बात तो ये है कि कश्मीरी पंडितों के लिए बोलने वाले लोगों को ‘अन्य नज़र‘ से भी देखा जाने लगा है। अपने घरों की कोमल यादों को सहलाते कश्मीरी पंडितों के के मन में यह आस फिर भी जिन्दा है कि-कुछ याद उन्हे भी कर लो...जो लौट के जा ना पाए‘‘


2 comments:

  1. समाचार है कि बीस साल बाद पहली बार श्रीनगर में मन्दीर की घंटी बजी. समझ में नहीं आ रहा खुश होना चाहिए या ....

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  2. This is a very good article. Even media only talks about so called secularism, but not talk about Kashmiri pandit... Where they are living or in which condition they are living.

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