संजय के इस ब्‍लॉग में आपका स्‍वागत है. मेरा सिरजण आप तक पहुंचे, इसका छोटा सा प्रयास।

Wednesday, October 4, 2017

*स्टोरी*लघुकथा*संजय पुरोहित
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नौजवान पत्रकार ने काला धंधा करने वाले गिरोह पर स्टोरी तैयार की। सरगना एक कथित समाजसेवी था। संपादक ने पत्रकार की पीठ थपथपाई।
सुबह नौजवान पत्रकार ने बार बार अखबार देखा।उसकी स्टोरी तो कहीं नहीं थी। लेकिन अखबार में कथित समाजसेवी का एक पृष्ठ का रंगीन चित्रमय विज्ञापन अवश्य था। 
नौजवान पत्रकार ने आधुनिक पत्रकारिता का पहला सबक सीखा।
*सवाल*लघुकथा*संजय पुरोहित
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मशहूर फोटोग्राफर की फोटो प्रदर्शनी। अतिथि का अवलोकन। फोटोग्राफर हर फोटो की ब्रीफ हिस्‍ट्री बता रहे थे। एक चित्र दिखाते कहा,''सर। ये फोटो दंगे का है, मैंने जान पर खेल कर इसे क्लिक किया।'' यह किसी व्‍यक्ति के जिंदा जलने का वीभत्‍स फोटो था । 
अतिथि के साथ आये एक बच्‍चे ने मासूमियत से सवाल किया, ''इन अंकल का फिर क्‍या हुआ ?'' फोटोग्राफर बच्‍चे का गाल थपथपाते बोला, ''मालूम नहीं बेटा। मैं तो वहां से जान बचा कर भाग निकला था।'' 
*मां*एक बड़ी लघुकथा*संजय पुरोहित*
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"मम्‍मा, यू नो। मेरी फ्रेंडस कहती है कि आई लुक फेट...कल से दो ही रोटी खाऊंगी।"
"नहीं बिटिया, तुम मोटी नहीं, बल्कि बिल्‍कुल फिट हो।"
"ना मम्‍मा। ओनली टू चपातीज फ्रोम टुमारो। दिस इज फाइनल।"
अगले दिन बिटिया ने देखा, मां ने उसके लिये दो ही रोटी बनाई पर रोटी का आकार दुगुना था, मोटाई भी।
*डेकोरम*लघुकथा*संजय पुरोहित
टी-शर्ट पहने एक युवा ऑफिसर को देखते ही बॉस ने डांटा, ''टी-शर्ट ?मीटींग का कोई डेकोरम है कि नहीं ?''
''सॉरी सर !अब ये गलती नहीं होगी।''रंगरूट मिमियाया।
साहब ने होठों के किनारे अटकी सिगरेट जलाते हुए वॉर्निग दी, ''आईन्‍दा से ये बेहुदगी नहीं चलेगी।'' 
युवा अधिकारी ने 'हां' में सिर हिलाया। 
*योजनाएं*लघुकथा*संजय पुरोहित 
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योजना निर्धन कल्‍याण की थी। कच्‍ची झोंपड़ियों को तोड़ कर पक्‍के मकान बनाये जाने थे। साहेब ने खुशी खुशी हस्‍ताक्षर कर दिये। अगली फाईल आई। पर्यटन को बढावा दिये जाने की योजना। पर्यटकों को ग्रामीण जीवन का एन्‍जॉय कराने के लिये सरकारी होटलों के कमरों को तोड़ कर झोंपड़ियां बनाई जानी थी। 
साहेब ने मुस्‍कुराते हुए इस फाईल पर भी हस्‍ताक्षर कर दिये।
*मातम**लघुकथा**संजय पुरोहित
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टी.वी.न्यूज चैनल स्टूडियो। कुछ लोग निराश बैठे थे। नेताजी दुर्घटना में घायल हुए थे। बचने की संभावना क्षीण थी। चैनल ने संभावित मृत्यु पर टेलिकास्‍ट किये जाने वाले प्रोग्रामों को तैयार किया। नेताजी के जीवन के चित्र, अभिलेख जुटाये। करीबी लोगों को चर्चा के लिये बुक किया। एक रिपोर्टर को नेताजी के गाँव भेजा। 
सब मेहनत बेकार। डॉक्‍टरों ने साफ़ कर दिया कि नेताजी की जान को अब कोई खतरा नहीं है। नेताजी के परिजनों, कार्यकर्ताओं में खुशी थी।
न्यूज चैनल स्टूडियो में मातम था।
*संकल्‍प**लघुकथा**संजय पुरोहित
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अपराधी पुत्र के दुखियारे पिता चल बसे। बैठक लगी। प्रतिदिन गरूड़-पुराण बांचा जाता। एक दिन कथावाचक ने नचिकेता वर्णित नर्क वृतान्त को सुनाया, "अधर्मी, पापी, दुष्टों को नर्क में नाना प्रकार की यातना दी जाती थी। किसी को कोड़े मारे जाते, कोई खौलते तेल में तला जाता..।" यह सुनते-सुनते अपराधी बेटे ने मन ही मन एक 'संकल्प' लिया। 
अगले दिन से गरूड़ पुराण बन्द करवा दिया।
रिक्त स्थान**लघुकथा**संजय पुरोहित 
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प्रकाशक ने पुस्तक की प्रथम प्रति लेखक को सौंपी। लेखक ने सरसरी नजर से पन्ने पलटे। एक पृष्ठ में दो गद्यांशों के मध्य अनावश्यक रिक्त स्थान छूटा रह गया। लेखक ने आंखें तरेरी। प्रकाशक ने क्षमा मांगते हुए पुस्‍तक चर्चा न्यौती।
दो युवाओं ने परचे पढ़े। दोनों ने रिक्त स्थान को त्रुटि बताया। अब बारी थी लेखक की। वे बोले, ‘‘काश पत्रवाचक 'रिक्त स्थान' का अर्थ समझ पाते ! ऊपर वाले गद्यांश को पढ़ कर पाठक कुछ मनन करे, फिर अगले गद्यांश पर आएं, इसी का संकेत है यह 'रिक्त स्थान'।‘‘ पत्रवाचक हतप्रभ! लेखक ने एक दृष्टि प्रकाशक पर डाली। मुस्कुरा रहा था वह।
*खट्टे अंगूर**लघुकथा**संजय पुरोहित
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लोमड़ी कूदी। फिर कूदी। फिर, फिर कूदी। अंगूर तक नहीं पहुंच पाई। चिढ़ कर बोली, "अंगूर खट्टे हैं।" फिर एक गधा आया। अंगूर देखे । वह उछला। एक झपट्टे में अंगूर के गुच्‍छे को मुँह में भर लिया। अंगूर वाकई खट्टे थे। गधे के मुंह से निकला ,"अंगूर खट्टे हैं।"
लोमड़ी दूर से देख रही थी। हंस कर बोली, "गधा कहीं का।" गधा गंभीरता से सोचने लगा।
*शेक्सपीयर झूठा था !*लघुकथा*संजय पुरोहित 
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बड़े कवि और एक नवोदित की कविता एक पत्रिका में छपी। मुद्रण की त्रूटि से लेखकों के नाम अदल-बदल गये। बड़े कवि को उस कविता की खूब प्रशंसा मिली, जो नवोदित की लिखी थी। उधर नवोदित कवि एक अदद टिप्पणी को तरस गया, उस कविता के लिए जो बड़े कवि ने लिखी थी।
पत्रिका ने अगले अंक में मुद्रण दोष के लिए क्षमा माँगी। नवोदित कवि को लगा, शेक्सपीयर झूठा था, जिसने लिखा था ‘‘व्हाॅट इज दैयर इन ए नेम ?‘‘
*विराम*लघुकथा*संजय पुरोहित
कैंटीन में काम कर रहे एक छोटे लड़के ने पकोड़े की प्लेट रखते हुए जिज्ञासावश पूछा, "साब जी , ये वेतन आयोग क्या होता है ? "
बाबूओं ने असहजता से पहले लड़के को, फिर एक दूसरे को देखा। चाय की चुस्कियों के बीच वेतन में इज़ाफ़े की खुशनुमा चर्चा को विराम लग गया।
*पिता*लघुकथा*संजय पुरोहित
रात के एक बज रहे थे। वह आहिस्‍ता से दरवाजा खोल घर में घुसा। देखा, पिता मूढ़े पर बैठे, अधजगे उसका इंतजार कर रहे थे। उसे देख, पिता को तसल्ली हुई। वे अपने कमरे में चले गये। वह झुंझलाया, पिताजी अभी भी उसे छोटा बच्‍चा समझते हैं !!
कुछ वर्ष बाद....
आधी रात गुजर चुकी थी। उसका बेटा घर नहीं लौटा था। उसकी आंखों में चिंता के भाव थे। नींद गायब। रात के एक बज रहे थे।
**फिर कहां ?**लघुकथा**संजय पुरोहित
जुलूस में नारा बुलंद हुआ, 'लोकतंत्र में गुण्‍डागर्दी'
जोश भरे सैकड़ो बोले,"नहीं चलेगी, नहीं चलेगी।"
माथे पर गमछा धरे, दांत कुचरते एक मिनख ने पूछा, "तो फिर कहां चलेगी ?"
उसको हाशिये पर धकेल, जुलूस आगे बढ़ गया।
*बनना*लघुकथा*संजय पुरोहित
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उसने कॉन्‍फीडेंटली कहा, "यहां वक्‍त हो चला है एक शॉर्ट ब्रेक का। आप बने रहें..."
.... और हम 'बन' गये।
'बने' रहे।
*एक छोटी सी लव स्टोरी*लघुकथा*संजय पुरोहित
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बारिश की एक मोटी बूंद पड़ी। नन्‍हा रेशम कीट पत्ती से छिटक, नीचे गिर पड़ा। पत्ती ने उसे देखा। उसकी रेशमी छुअन के पलों को याद किया...शाख से विदा ली। लहराती हुई नीचे आई और कीट पर बिछ सी गई। 
पानी का बहाव दोनों को ले चला।
*अडमिसन*लघुकथा*संजय पुरोहित
'बाऊजी, हम बोल रहे हैं.दिल्‍ली से..तुहार बेटा। चरणधोक बाऊजी'
'गंगा मईया की किरपा रहे। बोलो, अडमिसन हुवा के नाही ?'
'ना बाऊजी...।' 
'गए बरस हम बोले न, अऊर पढाई करो, मेहनत करो...पर ना...हमरी बात तो फटा दूध है, सो बहा दिये गंगा मईया मा..'
'बाऊजी, हम मेहनत किये। बहुत किये। सौ परसेंट लाये हैं बाऊजी तब भी ना हुआ..।'
'का बबुआ ? सौ परसेंट ?
'हां बाऊजी, अब इससे ज्‍यादे होते ही नहीं तो हम का लाते ?'
'.......बबुआ। थूक अइसी जूनिवरसीटी पर। थूक रजधानी पर। मार लतिया मोटी पंचायत पर। डाल मिट्टी ससुरे सिस्‍टम पर। आजा। लौट आ बबुआ। गंगा मईया कोनू मारग निकालेगी।'
'हां बाऊजी। हम आ रहे हैं..।'
*रिश्ता*लघुकथा - संजय पुरोहित
'‘देख सरफू, तेरा अब्बू मेरा जिग़री था। हम दोनों लंगड़े हमेशा साथ रहे। ऊपर वाले ने तुझे भी लंगडा..खैर, चिंता न करना। अपना भूख का रिश्ता है, समझा ?‘‘ कैलाश बोला। सरफू ने सिर हिलाया।
‘‘आज शनिवार है। शनिचर मंदिर में भरपेट खाने को मिलेगा। कल इतवार है। सुबह गिरजे पहुंच जाना। वहां कुछ मिल ही जायेगा।‘‘कैलाश ने समझाया।
‘‘सोमवार को पुलिया वाले शिव मंदिर में चलेंगे, मंगल को चौराहे वाले हनुमान मंदिर में। बुध को किले वाले गणेश मंदिर में और गुरूवार..।‘‘कैलाश सोचने लगा।
'‘..गुरूवार यानि जुम्मेरात, जुम्मेरात को तो सैयद साहब का उर्स शुरू होगा, वहीं चलेंगे।‘‘ सरफू चहका।
‘‘और जुम्मे पर..?" कैलाश ने पूछा।
"मस्जिद।‘‘ दोनों हंसते हुए बोले और अपनी-अपनी बैसाखियों को संभाला।
*बी.पी.एल.*लघुकथा*संजय पुरोहित
मैला कुचैला सा पुराना कार्ड दिखा कर बुढिया अनाज मांग रही थी। राशन डिपो वाला बार बार बी.पी.एल.कार्ड मांग रहा था। इसी बीच एक बाईक सवार युवक आया। बालों में अंगुलियां फिरायी। जैकेट से बी.पी.एल. कार्ड निकाला और डिपो वाले के आगे किया। राशन वाला बोला," देख अम्‍मा,ऐसा होता है बी.पी.एल.कार्ड!" बुढिया ने कातर दृष्टि से देखा। उसके पास ऐसा कार्ड नहीं था। वह जान गयी, राशन नहीं मिलेगा।
राशन की बोरियों के उपर टंगा 'बापू' के चित्र वाला पुराना कैलेण्‍डर तेज हवा से फड़फड़ा उठा।

*नीलामी**लघुकथा*संजय पुरोहित
रंगों की नीलामी पूरी हुई। पार्टियां मालिक, रंग गुलाम हुए। दलों ने अपने-अपने रंग चुने। पुरानी पार्टी को 'हरे' में वोट दिखे। देशभक्‍तों ने 'केसरिया' रंग में कुर्सी देखी। क्रांति के वहम वाली पार्टी ने 'लाल' चुना। पिछड़ों के तमगे वाली पार्टी ने 'नीले' पर दाव ठोका।
सब रंग बिक गये, सिवाय 'श्‍वेत' के। मार्केट में उसकी डिमाण्‍ड ही नहीं थी।
ब्रेकिंग न्यूज़*लघुकथा*संजय पुरोहित
सुबह से दोपहर हो गयी। ब्रेकिंग तो छोड़ो, हाईलाइट करने लायक न्यूज़ भी नहीं मिली। रिपार्टर और कैमरामेन मूढ़े पर बेकाम बैठे थे। तभी रिपोर्टर का मोबाइल बजा। उसने कानों से लगाया," हां, हां। क्या रेप ?!" ब्रेकिंग न्यूज़ थी। उसका चेहरा खिल उठा। उसने कैमरामेन को उठने का इशारा करते हुए डिटैल पूछी, "लोकेशन..नाम बताओ, हां, हां..।" इतना ही बोल कर रिपोर्टर का चेहरा फक्क़ पड़ गया। वह वापिस मूढ़े पर धंस गया। कैमरामेन ने उसकी और सवालिया नज़र डाली। रिपार्टर ने भयाक्रांत होते पूछा,"तुम्हारी बेटी का नाम क्या है..?"
कैमरामेन के हाथ से कैमरा गिर पड़ा।

*कहानी ख़त्म:* लघुकथा *संजय पुरोहित
"आओ आओ युवा लेखक जी। बैठो। मैंने तुम्हारी भेजी कहानी पढ़ी। बुरा ना मानना भाई, इसमें काफी कमियां है। शिल्प का अता-पता नहीं है। कथ्य स्पष्ट नहीं है। नरेशन की तो अति ही हो गयी है। प्रवाह नज़र नहीं आता। माफ़ करना भाई, इसे कहानी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।"
"कोई बात नहीं श्रीमन, परंतु जिस कहानी की आप बात कर रहे है, वो मेरी नहीं, मुंशी प्रेमचंद की है। अच्छी लगी तो आपको भेज दी। अपनी कहानी तो मैं अपने साथ लाया हूँ।" 
कहानी ख़त्म।
*दृष्टि*लघुकथा*संजय पुरोहित
पैसेंजर रेल रेंग रही थी। एक ग्रामीण मासूम किशोर रामचरितमानस पढ़ भाव-विभोर था। अहिल्‍या उद्धार प्रसंग पढ़ दोनों हाथ उठाते बोल उठा, "जय श्री राम।"
यह सुनते ही कम्‍पार्टमेंट में शांति छा गई। किशोर सहम गया। सब की नज़रें उस पर थी। लाल चश्‍मे वाले एक बढ़ऊ ने उसे हिकारत से घूरा। भगवा दुपट्टा डाले एक युवक ने उसे गर्व से देखा। एक बुढ़िया ने नेहभाव से निहारा। दाढ़ी-टोपी वाले अधेड़ ने उसे भयभीत हो देखा।
किशोर असमंजस से अपनी त्रूटि ढूंढने लगा !
*जी...।*लघुकथा*संजय पुरोहित*
‘‘बधाई हो! हम समधी हुए। आपकी बिटिया अब हमारी बहूरानी हुई। मैं शीघ्र कोई अच्छा मुहूर्त निकलवाता हूँ।"
‘‘जी! जी!!"
‘‘देखिये, हमें ना तो कार चाहिए, ना मोटर साईकिल ना फ्रिज-टीवी। भगवान का दिया सब कुछ है।‘‘
‘‘जी !"
‘‘मैं तो चाहूंगा कि आप इन सब के बदले कैश ही दे दें।"
‘‘जी ??!!"
"जी।"
"..जी..।"
सत्संग* लघुकथा* संजय पुरोहित
टी.वी. में दर्शन देने से पॉप्‍युलर हुए स्वामीजी का प्रवचन। बड़ा पाण्डाल। कई महिलाएं अपनी बहूओं सहित सत्संग का पुण्य कमाने टूट पड़ी। इतनी देर बैठने की आदत नहीं होने के कारण बहूओं की कमर दुखने लगी। वे बेचारी बैठने की मुद्राएं बार-बार बदल रही थी। यह देख, स्वामीजी मंद-मंद मुस्कुराये। अपने चीफ चेले को बुलाया। उसके कान में कुछ कहा।
प्रवचन समाप्त हुआ। पाण्डाल के निकासी द्वार पर कमर दर्द का 'आध्यात्मिक' मल्हम विक्रय के लिए उपलब्ध था।
'आध्यात्मिक' मल्हम खूब बिका!


सावधान*लघुकथा*संजय पुरोहित
बाहुबली की कोठी के बाहर प्‍लेट लगी थी-'कुत्‍ते से सावधान'
कोठी में कोई कुत्‍ता नहीं था।


वक्त*लघुकथा*संजय पुरोहित
मालती जब बहू बन कर आई तो सास के निरंकुश, कठोर अनुशासन में बंध कर जीवन की उमंग खो बैठी। सास का देहान्त हुआ। वक़्त गुज़रा। इकलौते पुत्र का विवाह हुआ। बहू आई तो मालती अपनी छाया बहू में देखने लगी। उसने बहू के लिए आज़ादी के सारे दरवाज़े खोल दिये। वक़्त गुज़रता रहा।
बहू की स्वच्छंद आज़ादी की कीमत पर मालती आजकल अपने पति के साथ ‘ओल्ड एज होम‘ में बाकी जीवन गुज़ार रही है।


*चिंतन**लघुकथा**संजय पुरोहित*
नुक्कड़। चाय के सबङकों के साथ 'सर्वहारा विरोधी सत्ता' को उखाड़ फेंकने पर चिंतन-चर्चा। अचानक कुछ लोग दौड़ते हुवे निकले। एक ने लाल चश्मे को दुरुस्त करते हुये भागने की वजह पूछी।
युवक चिल्लाया, "एक पागल सांड इधर ही आ रहा है! भागो!!"
उसकी बात ख़त्म होते-होते सारे विचारक भाग छूटे।
चिंतन लावारिस हो गया।

मजा*लघुकथा*संजय पुरोहित
बेटे को गली में पतंग लूटते देख, साहब डांटते हुए बाजार ले गये। पतंग-मांझा दिलाते नसीहत दी-कभी पतंग लूटने के लिए नहीं भागेगा। बेटे ने सिर हिलाया।
कुछ दिनों बाद साहब 'मोटा हाथ' मारकर ब्रीफकेस में डाल घर लौटे। देखा, बेटा फिर गली में पतंग लूट रहा था। साहब डांटते बोले, ‘‘पतंग-मांझा दिलवाया था।अब क्यों पतंग लूटने के लिए भागता है ?‘‘
‘‘पापा, जो मजा लूटने में है, वो खरीद कर उड़ाने में नहीं है।‘‘ बेटे ने उत्‍तर दिया। साहब कुछ न बोले। ब्रीफकेस को कस कर पकड़, घर के अन्दर हो लिये।
*यू-टर्न*लघुकथा*संजय पुरोहित
"देखिए, मुझे सम्मान की कोई इच्छा नहीं। बहुत हो गया सम्मान, अब तो चिढ़ सी लगती है।" साहित्‍यकार बोले।
"श्रीमान्जी, हम आपकी भावनाओं का आदर करते हैं। कृपा कर एक सुयोग्य नाम तो सुझा दीजिये, जिन्‍हे ये सवा दो लाख का पुरस्कार दिया जा सके।" संस्था प्रतिनिधि ने निवेदन किया।
"हैं !! सवा दो लाख ?!!? आप लोगों के आग्रह ने मुझे भावुक कर दिया है। मैं अपनी स्वीकृति देता हूं। कब रख रहे है समारोह ?" अब साहित्यकार के शब्‍दों में मिसरी का पुट था। संस्था प्रतिनिधि निहाल हो गए।
*धूंआ*लघुकथा*संजय पुरोहित
नुक्‍कड़ पर बैठे जटाधारी साधु ने देखा..
मशीन में गन्‍ना जा रहा था, थाने में आम आदमी।
साधु ठठा कर हंसा। चिलम चूसी। धूंआ उगलते बोला, "हा!हा!! लोकतंत्र!"

*धंधा*लघुकथा*संजय पुरोहित
''भईये, कैसे दोगे तिरंगे-फरियां-झण्डे ?''
''मास्‍साब, जो रेट आई है, वही लगा दूंगा।''
''अरे मुझे रेट-वेट से मतलब नहीं। पहली बार स्‍टोर का चार्ज मिला है। ये बता, किस भाव देगा। बिल कितने का काटेगा ?''
''मास्‍साब। नये हो। मुझे नहीं जानते। बहुत धंधा किया साब, तिरंगे के लिए कभी उल्टा-सीधा नहीं किया। जो भाव है, सो है।''
मास्‍साब हकबकाये। अनपढ़ ने ज्ञान चुभो दिया था। चुपचाप सिरक लिये।
*मौन नारे*लघुकथा*संजय पुरोहित 

न्‍याय के लिये दुखियारी राजधानी आई। पड़ गयी मीडिया के सामने। न्‍यूज़ चैनलों ने उसे नारे 'दिये', 'लगवाये'। नारे तो लगे, पर स्‍टोरी फीकी थी। मसाले के लिये अभागी को आगे-पीछे, चलवा कर रिकॉर्डिंग की। ये गये, तो अख़बार वाले आ गये। फिर नारे लगाने को कहा। वह यंत्रवत नारे लगाने लगी। फोटोग्राफर ने टोका, 'अरे फोटो अख़बार के लिये है, उसमें आवाज़ नहीं आयेगी। 'मौन नारे' लगाओ।'' बेचारी समझी नहीं तो रिपोर्टर ने डाइरेक्शन दिया, ''मुंह खोलो। हाथ खड़े करो। हो गये 'मौन नारे'।'' उसने ऐसा ही किया...पर...अब तक वह टूट चुकी थी। उसने अपनी जांघों के बीच दोनों हाथ धरे। कराह भरी एक सांस लेते हुए पूछा, ''साहेब न्‍याय कहां मिलेगा ?''
मीडियाकर्मियों ने कोई जवाब नहीं दिया। वे अपना काम निपटा चुके थे। अभागी के नारे मौन ही रह गये।



*जमाई*लघुकथा*संजय पुरोहित*
साहब ने महसूस किया कि कॉन्‍ट्रेक्‍ट पर लगा लड़का बहुत मेहनती है। जल्दी ऑफिस आना, देर तक काम करना। वाह। परमानेंटों को तो शर्म आनी चाहिये। इतनी तनख़्वाह लेते हैं, धैले का काम नहीं करते। लड़के से प्रभावित साहब ने बड़े साहब से सिफारिश की। बड़े साहब ने लड़के को देखा। पहले प्रोबेशन पर रखा, फिर परमानेंट कर दिया।
साहब ने महसूस किया, अब लड़का देर से ऑफिस आने लगा। हाज़री लगा कर गायब। चाय पीने जाता, तो घंटों नहीं आता। सीट पर टिकता ही नहीं।
साहब भूल गये थे कि अब वह 'जमाई' बन गया है।
*विलंब*लघुकथा*संजय पुरोहित

रेलकर्मी ऑफिस में चार घंटे विलंब से आया। नाराज साहेब ने डांटा,"इतने लेट ? शेम ऑन यू !"
"सॉरी सर। क्या करता, टूर पर था। ट्रेन शेड्यूल फाइनल करके आज आया, लेकिन ट्रेन ही लेट थी।"
साहब के पास अब कहने को कुछ नहीं था।

Sunday, February 26, 2017

श्री हरदर्शन सहगल का साक्षात्कार संजय पुरोहित के साथ

विभाजन की त्रासदी से श्रेष्ठता के शीर्ष पर: हरदर्शन सहगल
श्री हरदर्शन सहगल का साक्षात्‍कार संजय पुरोहित के साथ

(26 फरवरी 1935 को कुंदिया, जिला मियांवाली (अब पाकिस्तान में) जन्मे हरदर्शन सहगल का नाम आज हिंदी साहित्य जगत में एक बेहद सफल, श्रेष्ठ और देश भर की पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होने वाले साहित्यकार के रूप में आदर के साथ लिया जाता है। युवा साहित्यकार संजय पुरोहित ने श्री हरदर्शन सहगल से खास बातचीत की। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार के संपादित अंश) 
मैंने सहगल साहब से मुलाकात का समय मांगा। अभी आ जाईये, यह जवाब उन्होंने फोन पर दिया। मैं झटपट सहगल साहब के निवास संवादपर संवाद के लिये पहुंचा। सहगल साहब मेरा ही इंतजार कर रहे थे। हमेशा की तरह अपने छोटे से अध्ययन कक्ष में किताबों के जंगल में घिरे। जैसे कि रचना संसार की मूर्त रूपी किताबों को आगोश में समेटे हों। वहीं चिरपरिचित मुस्कान। मुझे देखने के बाद मुस्कान में विस्तार आया। उसी टेबल-कुर्सी पर जहां से अनगिनत अक्षरों को अपनी कल्पनाओं के साथ गूंथने की कला के महारथी शब्दशिल्पी हरदर्शन सहगल विराजे थे। हिंदी जगत के बेमिसाल साहित्यकार-हरदर्शन सहगल। उपर एक रैक में उनके आदर्श लेखक एन्टोव चेखव की सफेद फ्रेम में लगी श्वेत-श्याम तस्वीर। सामने गुरूजी और माता-पिता की तस्वीरें। सब कुछ जैसे लेखन के मौन गवाह हों। मैंने कुर्सी संभाली, रिकार्डिंग बटन ऑन किया। अपने प्रश्न रखने शुरू किये-
संजय पुरोहित-आपके बचपन से ही शुरूआत करते हैं। साहित्य के प्रति अनुराग कब से हुआ। कैसे हुआ ?
हरदर्शन सहगल-मेरी उम्र रही होगी यही कोई दो-ढ़ाई साल। बस इतनी ही। मुझसे पूछा गया कि क्या बनोगे ? मैंने कहा कवि। एक बार घर का एलबम तैयार किया। एल्बम में सबसे पहले रविन्द्रनाथ टेगोर का फोटो लगाया। कई दफा सोचता हूं ऐसा क्यों कर हुआ। पेशावर (पाकिस्तान) में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई शुरू की। कलाशेखुपरा में फिर से उर्दू में पढ़ाई करनी पड़ी। फिर पार्टीशन हो गया। बरेली आया। यहां हिंदी में फिर से पढाई। हर दफा एक क्लास पीछे। (हंसते हुए) लोग आगे बढ़ते हैं और मैं पिछड़ता रहा। हिचकोले खा-खाकर एज्युकेशन हुई। पर खूब अपनापन मिला। पढ़ने की आदत थी। बहुत ही ज्यादा। मेरे माता-पिता हिंदी नहीं जानते थे। या तो उर्दू जानते थे या अंग्रेजी। मैं हिंदी जानता था। मैं उन्हे कहानियां पढ़ पढ़ के सुनाता था। के.एम.मुंशी की किताबें, वृन्दालाल वर्मा की किताबें। और हां, एक मजेदार वाक़या सुनाता हूं। शायद सातवीं या आठवीं कक्षा में रहा हूंगा। एक लड़का बहुत परेशान करता था। मैं उससे लड़ तो नहीं सकता था, पर हां, लिख तो सकता था। मैंने उस पर एक उपन्यास ही लिख दिया। शीर्षक दिया बिल्लु-उल्लू। क्लास में पढ़ा, फिर फाड़ दिया। (इस वाकये पर उनके साथ ही मैं भी हंस पड़ा) जिस उम्र में बच्चे खिलौने लेते हैं मैं किताबें खरीदता था। वे किताबें मेरे पास अब भी पड़ी है। अब मैं सोचता हूं कि ये सब क्या था।

संजय पुरोहित- मतलब यह कि माता-पिता जी ने परोक्ष रूप से आपकी पढ़ने की आदत को प्रोत्साहित ही किया।
हरदर्शन सहगल- बिल्कुल। लिखने-पढ़ने की बहुत आदत रही है। मुझे याद है, जब छोटा था, माताजी-पिताजी मुझसे कहते-हरदर्शन शुरू हो जा। उन्हे चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावनलाल वर्मा, के.एम.मुंशी बहुत पसंद थे....(कुछ याद करते हुए) हां, नानक सिंह, पंजाबी का बहुत बड़ा राईटर है। उनकी कहानियां पसंद करते। उन्हे कहानी पढ़ कर सुनाते हुए मैं क्या करता, बीच में अपनी भी कहानी सुना देता था। (ठहाका मारते हुए)....फिर पूछता कि वो कहानी कैसी लगी। वे कहते बहुत अच्छी थी। तब मैं कहता कि ये मैने लिखी थी। वे बहुत खुश तो होते....पर उनके पास कोई गाईडलाईन नहीं थी।(एक चित्र की ओर इशारा करते हुए) ये देखो, ये थे मेरे प्रोफेसर डा. रामेश्वर दयाल अग्रवाल। इनको भी कहानियां सुना दिया करता था। उनकी बड़ी जान-पहचान थी। उन्होंने भी कोई हैल्प नहीं की। वे भी यह सोचते होंगे कि सहज पके सो मीठा होयेअपने आप संघर्ष करने दो। उर्दू में भी लिखा। फिर मोह भंग हुआ। उर्दू में लिखना छोड़ दिया। पंजाबी से ऑफर आती रही। पर मैंने जवाब दिया कि मेरे सोच की भाषा हिंदी है। मेरी शुरू की कहानियां बड़ी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में छपी। अमृतराय, बालकिशन राव जैसों ने मेरी आरम्भिक कहानियां छापी।


संजय पुरोहित- विभाजन ने आप जैसे संवेदनशील मन को पूरी तरह छिन्न भिन्न कर के रख दिया। विभाजन का जो दर्द था आपके लेखन में शुरू से ही रहा है। आपकी आत्मकथा तक। उस दौर के बारे में कुछ बतायें।
हरदर्शन सहगल- वो अजीबोगरीब दौर था। अच्छी, बुरी, त्रासद, हर्ष वाली सभी घटनायें हुईं। वो सारी की सारी मेरे मन में फोटोग्राफ है। वो मेरे लेखन में आई। मेरा विषय बहुत विस्तृत है। विभाजन। मेरा शुरू से पढ़ने का रहा। अपनी जड़ों से कैसे आदमी कटेगा ? सबसे बड़ी बात यही है। पेशावर, सक्खर, कुंडिया नहीं जाया जा सकता है पर बरेली जाया जा सकता है। मालगाड़ियों का सफर। सिर पर सामान। पिता रेल्वे में थे। क्वार्टर मिला तो सांस में सांस आई। जब पार्टीशन के दौरान एक तरफ जश्न मनाया जा रहा था, उसी समय, ठीक उसी समय वहां पर कत्ले आम हो रहा था। आगजनी हो रही था। औरतों के साथ दुराचार हो रहा था। बहुतों को तो ये भी नहीं पता था कि आज़ादी मिली है....आज़ादी किस कीमत पर मिली.....पार्टीशन के दौरान जो लोग मिले उन्हे मैंने अपनी कहानियों के पात्र नहीं बनाये बल्कि वे खुद बन गये। आज भी मुझे ऐसे सपने आते हैं कि मेरे खिलौने कोई छीन कर ले जा रहा है।
संजय पुरोहित - इतना लेखन। निरन्तर लेखन। गहरा लेखन। अथक लेखन। आखिर कैसे संभव हो पाया ?
हरदर्शन सहगल- ये मैंने नहीं लिखा। कुछ नहीं लिखा। ये मुझसे लिखाया गया। मैं नहीं जानता कि क्यों लिखाया गया।
संजय पुरोहित- मैं समझा नहीं....आपके कहने का मतलब है कि आपने जो लिखा वह आपसे लिखाया गया...
हरदर्शन सहगल- हां! बिल्कुल। मैंने अपनी आत्मकथा डगर डगर पर मगरमें मैंने इसको लिखा है।

संजय पुरोहित- क्या कभी ऐसा हुआ कि आपकी कहानियों के पात्र आप पर हावी हुए हों। पात्र बोल कर कह रहे हों कि मेरे साथ ये हुआ। इसे दर्ज करो.......
हरदर्शन सहगल- (कुछ सोचते हुए)......हां, पात्र भी हावी हुए हैं। ये पात्र खुद आते हैं। दरअसल सपनों में। अपना नाम बता जाते हैं। मैं रात को सोते-सोते उठता हूं। लिख लेता हूं। उस पात्र का कर्ज भी उतारना होता है, जो अपना नाम बताकर गया है। काफी कुछ लिखा जाता है। फिर पढ़ता हूं, फिर याद करता हूं। लिखते लिखते अपने पात्रों के साथ कई दफा रोने लगता हूं। हंसने लगता हूं। तनाव से पसीने-पसीने हो जाता हूं। पर मैं थोड़ा सचेत भी रहा। बहुत सारे लेखक कवि पागल भी हो गये। ये देखो, (रैक्स में सजी तस्वीर की ओर इशारा करते हुए) मेरे लिये जो एक पूज्य लेखक है एन्टव चेखव। ये तस्वीर मास्को से ही आई है। मेरी रचनाएं भी वहां रखी गयी और मुझे पुरस्कृत भी किया गया....तो मैं कह रहा था कि मोपासां, चेखव, लुसियन सभी डाक्टर थे। मोपांसा के साथ ट्रेजेडी ये हुई कि उसको सारे चरित्र, सारी चीजें इतनी हावी हो गयी कि मेज कुर्सियां भी चलती फिरती दिखने लगी। वो पागल हो गया। नौ साल। विपुल साहित्य। मार्केबल साहित्य। मैं आपको पूरी बात बता दूं कि मजाज था, शैलेष भटियानी, मंटो सभी पागल हो गये। जो लिख लिया। मैं अपने पात्रों के साथ सचेत रहा। लेखन सतर्क रहकर करना चाहिये।



संजय पुरोहित - क्या आपको ऐसा लगता है कि विदेशी लेखकों की तुलना में हमारा भारतीय साहित्य अभी भी नहीं आ पाया है ?
हरदर्शन सहगल- ये तो व्यक्तिगत चीज है। मैंने खूब पढ़ा। यदि कोई मेरी तरह टॉल्स्टॉय, गोर्की, पुश्किन, दोस्तावस्की और इन जैसे विश्वस्तरीय लेखकों को पढ़ता है तो हमें हिंदी साहित्य के स्तर का आकलन हो पाता है। ऐसे लेखकों की इस तरह से एक लम्बी लाईन है। एक दौर ऐसा था कि पता नहीं कौन सी ऐसी हवा चली कि इतने अच्छे लेखक आये और छा गये। मुझे नहीं लगता कि हिंदी....कोई व्यक्ति कहता है कि आप बहुत अच्छे लिखते हैं। मैं कहता हूं कि मैं नहीं मानता। मैं पूछता हूं कि आपने और किस किस को पढ़ा है ? तुलना की होती, तो मानता कि मैं कहां पर हूं। मैं अच्छा लिखता हूं।यहां यही प्रशंसा हो रही है। हमारे यहां लोग पढ़ते कम है (फिर हंसते हुए) वैसे नहीं पढ़ते तो अच्छा ही है। वो आदमी ज्यादा खुश रहता है, जो भ्रम में रहता है।

संजय पुरोहित- तो आपका मानना है कि हिंदी में उस दर्जे का बढ़िया साहित्य नहीं है जो अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में है....
हरदर्शन सहगल- माफ करें, हिंदी में वो बढ़िया साहित्य नहीं जो अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में है। स्टिफन जिग, उसको कोई कम्पीट कर दे...जिनका लिखा लेटर फ्रॉम एन अननोवल लेडीनहीं पढ़ा आपने ? (मैंने ना में गर्दन हिलाई) असली बात है कि पढ़ा जाना चाहिये। विक्टर ह्यूगो, शानदार लेखक। मैंने एक कहानी पढ़ी थी। आठ रूबलये कहानी थी चेखव की। वो कटिंग अभी भी मेरे पास रखी है। 1952 में वो कहानी पढ़ने के बाद मैं हिल गया। इससे पहले मैं चेखव को नहीं जानता था। मैं ढूंढता फिरा कि काश ! चेखव की कोई कहानी मिल जाये। नयी सड़क पर दुकानों के खूब चक्कर काटे। चेखव को ढूंढा। फिर वार्ड न. छह मिला। फिर वो हर साल का मेरा पाठ बन गया। ये इत्तेफाक की बात है कि जिनको अन्दर होना चाहिये, वो बाहर हैं। जिनको बाहर होना चाहिये था वो अन्दर हैं। ऐसी ट्रेजेडी आदमी को हिला कर रख देती है। अंग्रेजी बंगाली और दूसरी भाषाओं को पढ़ने पर हिंदी साहित्य के स्तर को परखा जा सकता है। हिंदी में भी अच्छे लेखक है। पढ लें आप। तुलना कर लें आप। उनका एंगल पकड़ लें तो वो जो खूबसूरत ऐंगल है। वो पढ़ने का आनन्द देती है। भगवती चरण वर्मा ने चित्रलेखालिख कर मेरे लिये तो मार्गदर्शन मानदण्ड खड़े किये। स्वेट मार्डेन की किताब जैसा चाहो वैसा बनो। चतुरसेन शास्त्री की गोलीदेखो आप। वृन्दालाल वर्मा, के.एम.मुंशी, सबसे बढ़िया।



(इसी बीच चाय भी आ गई और नमकीन भी। साथ ही सहगल साहब का नटखट पौत्र अभीष्ट, जो बकौल सहगल साहब, बेहद शैतान है और अपनी कक्षा का मानिटर है, भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा गया।)
संजय पुरोहित- सहगल साहब। आपके रचना संसार की सूची पर नजर डालने पर लगा, बच्चों के लिये लेखन को काफी पसंद करते हैं। बच्चों के लिये भी खूब लिखा।
हरदर्शन सहगल- नहीं। कम लिखा है। बच्चों की कहानियां सौ के करीब लिखे है। बच्चों की समस्याओं पर लेख लिखे। नाटक लिखे। खूब छपे। छप भी रहे हैं। वो अलग चीज है।
संजय पुरोहित- अभी अवार्डों, पुरस्कारों, सम्मानों में सेटिंगबाजों की घुसपैठ, नाक़ाबिलों को सिफारिश के आधार पर सम्मान किये जाने की वाहियात परम्परा चल पड़ी है। आप इस बारे में क्या सोचते हैं ?
हरदर्शन सहगल- लोग पुरस्कार के लिये लिखते हैं, उन्हे पुरस्कार मिल गये। मुझे कोई महत्वाकांक्षा नहीं। मैंने लेखन के लिये लिखा, लिखता चला गया। कितनी पीढ़ी आई। चली गयी। मुझे लेखन में कभी बाधा नहीं आई। ...हां। इस तरीके से मिलते हैं। मिल सकते हैं पुरस्कार। पर जनता में क्या सन्देश जाता है ? जिसको पुरस्कार मिल गया और जिसकी कहानी लोकल पेपर में देख ली वो बड़ा लेखक है ? हरदर्शन सहगल नहीं है ? चाहे हरदर्शन छप रहा है कादम्बिनीमें, ‘समकालीन भारतीय साहित्यमें, ‘ज्ञानोदयमें, ‘माध्यममें, ‘हंसमें। इस तरह की बहुत पत्रिकाओं में जो महत्वपूर्ण है। मैं शुरू से ही इन पत्रिकाओं में छपता रहा हूं। मेरे प्रोफेसर साहब कहते थे कि तुम बहुत अच्छे लेखक बनोगे। क्योंकि दो चीजें तुम्हारे पास हैं। एक तो नॉवल्टी, जो जरूरी चीज है। दूसरा एक ही बात को घूमा-फिरा के कई तरीके से कह सकते हो। बस। काफी है तुम्हारे लिये। मेरा आशीर्वाद है, आशीर्वाद नहीं भी हो तो भी तुम्हे कोई रोक नहीं सकता (कह कर हंस पड़े सहगल साहब)


संजय पुरोहित- कभी मलाल रहा कि जिस स्तर का आपका लेखन है, जिस स्तर के अवार्ड के आप सुपात्र हैं वे अन्य लोगों को मिलते चले गये ?
हरदर्शन सहगल- भई...थोड़ी सी लालसा तो हर लेखक में होती है। पुरस्कार यदि हमसे बहुत काबिल आदमी ले जा रहा है, तो बहुत खुशी होती है। जब नाक़ाबिल ले जाता है, तकलीफ तो थोड़ी सी होती है...अच्छा एक बात बताईये....कि जिसको पुरस्कार मिल रहे हैं, उसको सारे के सारे पुरस्कार मिलते चले जा रहे हैं। क्या सारी लियाक़त एक आदमी में ही घुस गयी ? दूसरा कोई आदमी क़ाबिल नहीं है हिंदुस्तान में ? (हंसते हुए) पुरस्कार लेने होते तो मैं भी राजस्थानी सीखता। अमरकांत को अस्सी साल की उम्र में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। मैंने उन्हे पत्र लिखा। आपको अब अवार्ड मिल रहा है। राजस्थानी, कोंकणी जैसी प्रादेशिक भाषा में हर साल एक पुरस्कार मिल जाता है। क्या आप नहीं मानते कि हिंदी में जितनी किताबें छपती है, जितने लेखक हैं, उसी अनुपात में मल्टीप्लाई करके पुरस्कारों की संख्या हिंदी में ज्यादा होनी चाहिये ? आप बूढ़े हो गये तब मिल रहा है। यहां लड़के को मिल रहा है। वो भी साहित्य अकादमी का पुरस्कार है। वो भी नाज-नखरे दिखाता है कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है।


संजय पुरोहित- आपने लगभग हर विधा में इतनी स्तरीय पुस्तकें लिखी। श्रेष्ठ लेखन किया। आपके रचना संसार पर अब तक बारह पी.एचडी.,एम.फिल.,शोध हुई। लगभग तीन सौ पचास कहानियां आपने लिखी। देशभर की सभी श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में चार-पांच दशकों से लगातार आपकी रचनाओं का प्रकाशन हो रहा है। फिर भी पुरस्कार नहीं।क्या सारे पुरस्कार ही गड़बड़ हैं ?
हरदर्शन सहगल-...पुरस्कार तो सारे ही गड़बड़ हैं ही। इसमें कोई शक नहीं है। पुरस्कारों पर ही यदि लिखा जाये तो बड़ी किताब नहीं तो एक बुकलेट तो बन ही जायेगी। मुझे चिट्ठियां भी आती रही। पाठक, शुभचिन्तक बताते भी रहे कि आपको अवार्ड मिलने वाला था, किंतु नाम काट दिया गया। और जगह से भी यह पता चलता रहा। नाम होता है, दूसरा आदमी नाम कटवा देता है....
संजय पुरोहित- क्या इससे निराशा होती है ?
हरदर्शन सहगल- निराशा तो क्या......मैं तो अपनी भड़ास कागजों में उतार देता हूं। बिड़ला फाउण्डेशन के अवार्ड के समय अध्यक्ष नंदकिशोर आचार्य थे। मैंने उन्हे एक आफिसियल चिट्ठी लिखी। अकादमी को चिट्ठी लिखी। अकादमी को लिखा ये कौन सा तरीका है यदि आपका नाम दूसरा प्रपोज करे तो अवार्ड मिलेगा। स्वयं अप्लाई नहीं कर सकते ? मंत्री की सिफारिश लाओ। हरदर्शन की सिफारिश करने वाला कौन है ? (हंसते हुए) एक बार से.रा.यात्री जी को एक पुरस्कार मिला। उनकी पहली टिप्पणी थी, ‘जरूर वहां कोई मेरा आदमी बैठा है।इसी तरह मुझे गृह मंत्रालय का पांच सौ रूपये का एक पुरस्कार मिला। इस पर मेरे भाई ने टिप्पणी की शायद वहां ईमानदार लोग बैठे हैं।ये है पुरस्कारों की सारी माया।


संजय पुरोहित- कभी फिल्मों के लिये लिखने का सोचा ?
हरदर्शन सहगल- नहीं। ना ना। फिल्मो के लिये हाज़रियां भरनी पड़ती है। धक्के खाने पड़ते हैं। मैं संकोची रहा, सब लोग बुलाते रहे। मैं नहीं गया। यात्राएं भी नहीं करता। आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं है।
संजय पुरोहित- एक सवाल जरा हट के। कवि क्यों नहीं बने ?
हरदर्शन सहगल- (हंसते हुए) धारा तो एक ही है। जब सातवीं आठवीं में था तो शिशू पत्रिका में कविताएं छपी। कवि बने, थोड़े से। संवेदनशीलता होती ही है। कवि मन होता ही है। कल्पनाशीलता होती है। इसके बिना लेखकपन का कोई अर्थ ही नहीं है।
संजय पुरोहित- तेज भागती दुनिया। कम होते पाठकों का रोना। सूचना प्रौद्योगिकी का शोर। हरदर्शन सहगल साहब इस दौर को कैसे देखते हैं ?
हरदर्शन सहगल- इस विषय में क्या कहा जाये। ये तो जमाने की आंधी है। हम कितने प्रवचन दें दें। कितनी सीखें दे दें। बच्चों को समझा दें। नई टेक्नालॉजी। नया दौर। एक दूसरे के प्रति उपेक्षा का भाव। दरअसल ये समय की आंधी है। उनका दोष नहीं है। उसको कोई रोक नहीं सकता। अपने आप जमाना पलटता है। वक्त आता है। फिर वैसी की वैसी स्थितियां बनती है। अब वक्त है कि चिटठी देखने को आदमी तरसता है। एक बात और भी। पाठक नहीं होने का रोना। हर महीने हजारों की तादाद में पत्र-पत्रिकाएं, अखबार निकलते हैं। ये क्या कूडे में डाल दिये जाते हैं ? नहीं। ऐसा नहीं है। पाठक हैं। मुझे दूर-दूर से पत्र आते हैं। विशाल पाठक वर्ग है। मेरी कहानी लुटे हुए दिनइंडिया टुडे में छपी। उसके बाद आठवीं जगह जब छपी तो पाठक का फोन आया। विशाल हिंदी जगत है। मेरा मानना है कि अप्रकाशित तो ठीक है। मौलिक भी ठीक है। मगर अप्रकाशित रहना ठीक नहीं है। कहानियां रिपीट होनी चाहिये। ताकि अधिक से अधिक पाठकों तक रचना पहुंचे।


संजय पुरोहित- आपके लिये साहित्य का यथार्थ क्या है ? अभिष्ट मूल्य क्या है ?
हरदर्शन सहगल- यदि हम अपनी दृष्टि में थोड़ा पैनापन, लचीलापन, उदात्तवृत्ति लाकर देखें तो हम पाएंगे कि यह यथार्थ‘, यथार्थ नहीं है। जीवन का वास्तविक यथार्थ है सत्य, हमारे नैतिक शाश्वत, आदर्श मूल्य। इन्हे आत्मसात करने के लिये नीतिशास्त्र हमारा, हमारे साहित्य का मार्गदर्शक, सहायक बन सकता है। मेरे ख्याल से साहित्य, विशेष रूप से कहानी, साहित्य का रूपान्तरण है। हम बार बार क्यों भूल जाते हैं कि हितसाहित्य का सर्वाधिक अनिवार्य और अभीष्ट मूल्य है। अंग है। साहित्य में हितकारी भावों की अभिव्यक्ति ही उसे सार्थकता प्रदान करती है।
संजय पुरोहित- नये लेखकों के लिये क्या कहना चाहेंगे ?
हरदर्शन सहगल- मैं इसे नहीं मानता कि कोई नया होता है। नयापन तो उसके अन्दर बसा होता है तो प्रकट होता है। मेरे सामने कितने आये इतनी पीढ़िया इतने लड़के मेरे सामने से आये। उभरे। शोर मचाया और खतम हो गये। मेरा लेखन निरन्तर चलता, छपता रहा। युवा साहित्य के क्षेत्र में अगर समर्पित भाव से आते हैं तो उनको कोई रोक नहीं सकता। और अगर वो सिर्फ नाम रोशन करने के लिये आते हैं या पुरस्कार लेने के लिये आते हैं तो मिट जायेंगे।
संजय पुरोहित- आपकी नजर में आने वाली पीढ़ियों के द्वारा हरदर्शन सहगल के लेखन को किस प्रकार याद किया जाना चाहिये।
हरदर्शन सहगल- मेरा यह मानना है कि किसी लेखक के रचना संसार का वास्तविक मूल्यांकन लेखक के मरने के सौ साल बाद होता है। क्योंकि उस समय ना तो उसका कोई दोस्त होता है, ना दुश्मन होता है।
संजय पुरोहित- आपने साक्षात्कार के लिये अपना समय दिया। मैं आभारी हूं। आपके निरन्तर सृजनशील रहने और सुदीर्घ मंगलमय जीवन की कामना करता हूं। धन्यवाद।................................................................................................................................
श्री हरदर्शन सहगल का रचना संसार









कहानी संग्रह
1.            मौसम                                                 2.टेढ़े मूंह वाला दिन
3.            मर्यादित                                              4.सरहद पर सुलह
5.            मिस इंडिया: मदर इंडिया                     6.प्रेम संबंधों की कहानियां
7.            तीसरी कहानी                                     8.मुहब्बतें

व्यंग्य कथा संग्रह
 गोल लिफाफे
हास्य संस्मरण संग्रह
झूलता हुआ ग्यारह दिसम्बर
उपन्यास
1.सफेद पंखों की उड़ान  2.टूटी हुई ज़मीन (देश विभाजन पर)3.कई मोड़ों के बाद (स्त्री विमर्श)
बाल उपन्यास
1.            छोटे कदम: लम्बी राहें 2.मन की घंटियां
नाटक
1.घुमावदार रास्ते              2.मंजिल की ओर             3.सात हास्य नाटक
बाल कथा तथा नाटक संग्रह
करीब दस। समग्र बाल कहानियां चार खण्डों में।
आत्मकथा
डगर डगर पर मगर
लघुकथा संग्रह
आधी सदी का सफरनामा
संपादन 1. सदा ए अदब (उर्दू साहित्य) 2. नये आसमान 3. वर्जनाओं को लांघते हुए
विशेष: हरदर्शन सहगल के रचना संसार पर अब तक 12 पी.एचडी. एमफिल, शोध हो चुके हैं। एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम मे कहानियां शामिल। इनकी कहानी पर टेलि फिल्में बनी। कई कहानियों का अन्य भाषाओं में अनुवाद। उपन्यास टूटी हुई जमीनका गुजराती में अनुवाद प्रकाशित। सोवियत नारी मास्को, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
------------------------------------------------ संजय पुरोहित
पुत्र स्व.श्री बुलाकीदास बावरा
बावरा निवास, समीप सूरसागर,
धोबी धोरा, बीकानेर 334001
मो. न. 9413481345