संजय के इस ब्‍लॉग में आपका स्‍वागत है. मेरा सिरजण आप तक पहुंचे, इसका छोटा सा प्रयास।

Wednesday, October 4, 2017

*स्टोरी*लघुकथा*संजय पुरोहित
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नौजवान पत्रकार ने काला धंधा करने वाले गिरोह पर स्टोरी तैयार की। सरगना एक कथित समाजसेवी था। संपादक ने पत्रकार की पीठ थपथपाई।
सुबह नौजवान पत्रकार ने बार बार अखबार देखा।उसकी स्टोरी तो कहीं नहीं थी। लेकिन अखबार में कथित समाजसेवी का एक पृष्ठ का रंगीन चित्रमय विज्ञापन अवश्य था। 
नौजवान पत्रकार ने आधुनिक पत्रकारिता का पहला सबक सीखा।
*सवाल*लघुकथा*संजय पुरोहित
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मशहूर फोटोग्राफर की फोटो प्रदर्शनी। अतिथि का अवलोकन। फोटोग्राफर हर फोटो की ब्रीफ हिस्‍ट्री बता रहे थे। एक चित्र दिखाते कहा,''सर। ये फोटो दंगे का है, मैंने जान पर खेल कर इसे क्लिक किया।'' यह किसी व्‍यक्ति के जिंदा जलने का वीभत्‍स फोटो था । 
अतिथि के साथ आये एक बच्‍चे ने मासूमियत से सवाल किया, ''इन अंकल का फिर क्‍या हुआ ?'' फोटोग्राफर बच्‍चे का गाल थपथपाते बोला, ''मालूम नहीं बेटा। मैं तो वहां से जान बचा कर भाग निकला था।'' 
*मां*एक बड़ी लघुकथा*संजय पुरोहित*
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"मम्‍मा, यू नो। मेरी फ्रेंडस कहती है कि आई लुक फेट...कल से दो ही रोटी खाऊंगी।"
"नहीं बिटिया, तुम मोटी नहीं, बल्कि बिल्‍कुल फिट हो।"
"ना मम्‍मा। ओनली टू चपातीज फ्रोम टुमारो। दिस इज फाइनल।"
अगले दिन बिटिया ने देखा, मां ने उसके लिये दो ही रोटी बनाई पर रोटी का आकार दुगुना था, मोटाई भी।
*डेकोरम*लघुकथा*संजय पुरोहित
टी-शर्ट पहने एक युवा ऑफिसर को देखते ही बॉस ने डांटा, ''टी-शर्ट ?मीटींग का कोई डेकोरम है कि नहीं ?''
''सॉरी सर !अब ये गलती नहीं होगी।''रंगरूट मिमियाया।
साहब ने होठों के किनारे अटकी सिगरेट जलाते हुए वॉर्निग दी, ''आईन्‍दा से ये बेहुदगी नहीं चलेगी।'' 
युवा अधिकारी ने 'हां' में सिर हिलाया। 
*योजनाएं*लघुकथा*संजय पुरोहित 
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योजना निर्धन कल्‍याण की थी। कच्‍ची झोंपड़ियों को तोड़ कर पक्‍के मकान बनाये जाने थे। साहेब ने खुशी खुशी हस्‍ताक्षर कर दिये। अगली फाईल आई। पर्यटन को बढावा दिये जाने की योजना। पर्यटकों को ग्रामीण जीवन का एन्‍जॉय कराने के लिये सरकारी होटलों के कमरों को तोड़ कर झोंपड़ियां बनाई जानी थी। 
साहेब ने मुस्‍कुराते हुए इस फाईल पर भी हस्‍ताक्षर कर दिये।
*मातम**लघुकथा**संजय पुरोहित
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टी.वी.न्यूज चैनल स्टूडियो। कुछ लोग निराश बैठे थे। नेताजी दुर्घटना में घायल हुए थे। बचने की संभावना क्षीण थी। चैनल ने संभावित मृत्यु पर टेलिकास्‍ट किये जाने वाले प्रोग्रामों को तैयार किया। नेताजी के जीवन के चित्र, अभिलेख जुटाये। करीबी लोगों को चर्चा के लिये बुक किया। एक रिपोर्टर को नेताजी के गाँव भेजा। 
सब मेहनत बेकार। डॉक्‍टरों ने साफ़ कर दिया कि नेताजी की जान को अब कोई खतरा नहीं है। नेताजी के परिजनों, कार्यकर्ताओं में खुशी थी।
न्यूज चैनल स्टूडियो में मातम था।
*संकल्‍प**लघुकथा**संजय पुरोहित
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अपराधी पुत्र के दुखियारे पिता चल बसे। बैठक लगी। प्रतिदिन गरूड़-पुराण बांचा जाता। एक दिन कथावाचक ने नचिकेता वर्णित नर्क वृतान्त को सुनाया, "अधर्मी, पापी, दुष्टों को नर्क में नाना प्रकार की यातना दी जाती थी। किसी को कोड़े मारे जाते, कोई खौलते तेल में तला जाता..।" यह सुनते-सुनते अपराधी बेटे ने मन ही मन एक 'संकल्प' लिया। 
अगले दिन से गरूड़ पुराण बन्द करवा दिया।
रिक्त स्थान**लघुकथा**संजय पुरोहित 
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प्रकाशक ने पुस्तक की प्रथम प्रति लेखक को सौंपी। लेखक ने सरसरी नजर से पन्ने पलटे। एक पृष्ठ में दो गद्यांशों के मध्य अनावश्यक रिक्त स्थान छूटा रह गया। लेखक ने आंखें तरेरी। प्रकाशक ने क्षमा मांगते हुए पुस्‍तक चर्चा न्यौती।
दो युवाओं ने परचे पढ़े। दोनों ने रिक्त स्थान को त्रुटि बताया। अब बारी थी लेखक की। वे बोले, ‘‘काश पत्रवाचक 'रिक्त स्थान' का अर्थ समझ पाते ! ऊपर वाले गद्यांश को पढ़ कर पाठक कुछ मनन करे, फिर अगले गद्यांश पर आएं, इसी का संकेत है यह 'रिक्त स्थान'।‘‘ पत्रवाचक हतप्रभ! लेखक ने एक दृष्टि प्रकाशक पर डाली। मुस्कुरा रहा था वह।
*खट्टे अंगूर**लघुकथा**संजय पुरोहित
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लोमड़ी कूदी। फिर कूदी। फिर, फिर कूदी। अंगूर तक नहीं पहुंच पाई। चिढ़ कर बोली, "अंगूर खट्टे हैं।" फिर एक गधा आया। अंगूर देखे । वह उछला। एक झपट्टे में अंगूर के गुच्‍छे को मुँह में भर लिया। अंगूर वाकई खट्टे थे। गधे के मुंह से निकला ,"अंगूर खट्टे हैं।"
लोमड़ी दूर से देख रही थी। हंस कर बोली, "गधा कहीं का।" गधा गंभीरता से सोचने लगा।
*शेक्सपीयर झूठा था !*लघुकथा*संजय पुरोहित 
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बड़े कवि और एक नवोदित की कविता एक पत्रिका में छपी। मुद्रण की त्रूटि से लेखकों के नाम अदल-बदल गये। बड़े कवि को उस कविता की खूब प्रशंसा मिली, जो नवोदित की लिखी थी। उधर नवोदित कवि एक अदद टिप्पणी को तरस गया, उस कविता के लिए जो बड़े कवि ने लिखी थी।
पत्रिका ने अगले अंक में मुद्रण दोष के लिए क्षमा माँगी। नवोदित कवि को लगा, शेक्सपीयर झूठा था, जिसने लिखा था ‘‘व्हाॅट इज दैयर इन ए नेम ?‘‘
*विराम*लघुकथा*संजय पुरोहित
कैंटीन में काम कर रहे एक छोटे लड़के ने पकोड़े की प्लेट रखते हुए जिज्ञासावश पूछा, "साब जी , ये वेतन आयोग क्या होता है ? "
बाबूओं ने असहजता से पहले लड़के को, फिर एक दूसरे को देखा। चाय की चुस्कियों के बीच वेतन में इज़ाफ़े की खुशनुमा चर्चा को विराम लग गया।
*पिता*लघुकथा*संजय पुरोहित
रात के एक बज रहे थे। वह आहिस्‍ता से दरवाजा खोल घर में घुसा। देखा, पिता मूढ़े पर बैठे, अधजगे उसका इंतजार कर रहे थे। उसे देख, पिता को तसल्ली हुई। वे अपने कमरे में चले गये। वह झुंझलाया, पिताजी अभी भी उसे छोटा बच्‍चा समझते हैं !!
कुछ वर्ष बाद....
आधी रात गुजर चुकी थी। उसका बेटा घर नहीं लौटा था। उसकी आंखों में चिंता के भाव थे। नींद गायब। रात के एक बज रहे थे।
**फिर कहां ?**लघुकथा**संजय पुरोहित
जुलूस में नारा बुलंद हुआ, 'लोकतंत्र में गुण्‍डागर्दी'
जोश भरे सैकड़ो बोले,"नहीं चलेगी, नहीं चलेगी।"
माथे पर गमछा धरे, दांत कुचरते एक मिनख ने पूछा, "तो फिर कहां चलेगी ?"
उसको हाशिये पर धकेल, जुलूस आगे बढ़ गया।
*बनना*लघुकथा*संजय पुरोहित
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उसने कॉन्‍फीडेंटली कहा, "यहां वक्‍त हो चला है एक शॉर्ट ब्रेक का। आप बने रहें..."
.... और हम 'बन' गये।
'बने' रहे।
*एक छोटी सी लव स्टोरी*लघुकथा*संजय पुरोहित
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बारिश की एक मोटी बूंद पड़ी। नन्‍हा रेशम कीट पत्ती से छिटक, नीचे गिर पड़ा। पत्ती ने उसे देखा। उसकी रेशमी छुअन के पलों को याद किया...शाख से विदा ली। लहराती हुई नीचे आई और कीट पर बिछ सी गई। 
पानी का बहाव दोनों को ले चला।
*अडमिसन*लघुकथा*संजय पुरोहित
'बाऊजी, हम बोल रहे हैं.दिल्‍ली से..तुहार बेटा। चरणधोक बाऊजी'
'गंगा मईया की किरपा रहे। बोलो, अडमिसन हुवा के नाही ?'
'ना बाऊजी...।' 
'गए बरस हम बोले न, अऊर पढाई करो, मेहनत करो...पर ना...हमरी बात तो फटा दूध है, सो बहा दिये गंगा मईया मा..'
'बाऊजी, हम मेहनत किये। बहुत किये। सौ परसेंट लाये हैं बाऊजी तब भी ना हुआ..।'
'का बबुआ ? सौ परसेंट ?
'हां बाऊजी, अब इससे ज्‍यादे होते ही नहीं तो हम का लाते ?'
'.......बबुआ। थूक अइसी जूनिवरसीटी पर। थूक रजधानी पर। मार लतिया मोटी पंचायत पर। डाल मिट्टी ससुरे सिस्‍टम पर। आजा। लौट आ बबुआ। गंगा मईया कोनू मारग निकालेगी।'
'हां बाऊजी। हम आ रहे हैं..।'
*रिश्ता*लघुकथा - संजय पुरोहित
'‘देख सरफू, तेरा अब्बू मेरा जिग़री था। हम दोनों लंगड़े हमेशा साथ रहे। ऊपर वाले ने तुझे भी लंगडा..खैर, चिंता न करना। अपना भूख का रिश्ता है, समझा ?‘‘ कैलाश बोला। सरफू ने सिर हिलाया।
‘‘आज शनिवार है। शनिचर मंदिर में भरपेट खाने को मिलेगा। कल इतवार है। सुबह गिरजे पहुंच जाना। वहां कुछ मिल ही जायेगा।‘‘कैलाश ने समझाया।
‘‘सोमवार को पुलिया वाले शिव मंदिर में चलेंगे, मंगल को चौराहे वाले हनुमान मंदिर में। बुध को किले वाले गणेश मंदिर में और गुरूवार..।‘‘कैलाश सोचने लगा।
'‘..गुरूवार यानि जुम्मेरात, जुम्मेरात को तो सैयद साहब का उर्स शुरू होगा, वहीं चलेंगे।‘‘ सरफू चहका।
‘‘और जुम्मे पर..?" कैलाश ने पूछा।
"मस्जिद।‘‘ दोनों हंसते हुए बोले और अपनी-अपनी बैसाखियों को संभाला।
*बी.पी.एल.*लघुकथा*संजय पुरोहित
मैला कुचैला सा पुराना कार्ड दिखा कर बुढिया अनाज मांग रही थी। राशन डिपो वाला बार बार बी.पी.एल.कार्ड मांग रहा था। इसी बीच एक बाईक सवार युवक आया। बालों में अंगुलियां फिरायी। जैकेट से बी.पी.एल. कार्ड निकाला और डिपो वाले के आगे किया। राशन वाला बोला," देख अम्‍मा,ऐसा होता है बी.पी.एल.कार्ड!" बुढिया ने कातर दृष्टि से देखा। उसके पास ऐसा कार्ड नहीं था। वह जान गयी, राशन नहीं मिलेगा।
राशन की बोरियों के उपर टंगा 'बापू' के चित्र वाला पुराना कैलेण्‍डर तेज हवा से फड़फड़ा उठा।

*नीलामी**लघुकथा*संजय पुरोहित
रंगों की नीलामी पूरी हुई। पार्टियां मालिक, रंग गुलाम हुए। दलों ने अपने-अपने रंग चुने। पुरानी पार्टी को 'हरे' में वोट दिखे। देशभक्‍तों ने 'केसरिया' रंग में कुर्सी देखी। क्रांति के वहम वाली पार्टी ने 'लाल' चुना। पिछड़ों के तमगे वाली पार्टी ने 'नीले' पर दाव ठोका।
सब रंग बिक गये, सिवाय 'श्‍वेत' के। मार्केट में उसकी डिमाण्‍ड ही नहीं थी।
ब्रेकिंग न्यूज़*लघुकथा*संजय पुरोहित
सुबह से दोपहर हो गयी। ब्रेकिंग तो छोड़ो, हाईलाइट करने लायक न्यूज़ भी नहीं मिली। रिपार्टर और कैमरामेन मूढ़े पर बेकाम बैठे थे। तभी रिपोर्टर का मोबाइल बजा। उसने कानों से लगाया," हां, हां। क्या रेप ?!" ब्रेकिंग न्यूज़ थी। उसका चेहरा खिल उठा। उसने कैमरामेन को उठने का इशारा करते हुए डिटैल पूछी, "लोकेशन..नाम बताओ, हां, हां..।" इतना ही बोल कर रिपोर्टर का चेहरा फक्क़ पड़ गया। वह वापिस मूढ़े पर धंस गया। कैमरामेन ने उसकी और सवालिया नज़र डाली। रिपार्टर ने भयाक्रांत होते पूछा,"तुम्हारी बेटी का नाम क्या है..?"
कैमरामेन के हाथ से कैमरा गिर पड़ा।

*कहानी ख़त्म:* लघुकथा *संजय पुरोहित
"आओ आओ युवा लेखक जी। बैठो। मैंने तुम्हारी भेजी कहानी पढ़ी। बुरा ना मानना भाई, इसमें काफी कमियां है। शिल्प का अता-पता नहीं है। कथ्य स्पष्ट नहीं है। नरेशन की तो अति ही हो गयी है। प्रवाह नज़र नहीं आता। माफ़ करना भाई, इसे कहानी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।"
"कोई बात नहीं श्रीमन, परंतु जिस कहानी की आप बात कर रहे है, वो मेरी नहीं, मुंशी प्रेमचंद की है। अच्छी लगी तो आपको भेज दी। अपनी कहानी तो मैं अपने साथ लाया हूँ।" 
कहानी ख़त्म।
*दृष्टि*लघुकथा*संजय पुरोहित
पैसेंजर रेल रेंग रही थी। एक ग्रामीण मासूम किशोर रामचरितमानस पढ़ भाव-विभोर था। अहिल्‍या उद्धार प्रसंग पढ़ दोनों हाथ उठाते बोल उठा, "जय श्री राम।"
यह सुनते ही कम्‍पार्टमेंट में शांति छा गई। किशोर सहम गया। सब की नज़रें उस पर थी। लाल चश्‍मे वाले एक बढ़ऊ ने उसे हिकारत से घूरा। भगवा दुपट्टा डाले एक युवक ने उसे गर्व से देखा। एक बुढ़िया ने नेहभाव से निहारा। दाढ़ी-टोपी वाले अधेड़ ने उसे भयभीत हो देखा।
किशोर असमंजस से अपनी त्रूटि ढूंढने लगा !
*जी...।*लघुकथा*संजय पुरोहित*
‘‘बधाई हो! हम समधी हुए। आपकी बिटिया अब हमारी बहूरानी हुई। मैं शीघ्र कोई अच्छा मुहूर्त निकलवाता हूँ।"
‘‘जी! जी!!"
‘‘देखिये, हमें ना तो कार चाहिए, ना मोटर साईकिल ना फ्रिज-टीवी। भगवान का दिया सब कुछ है।‘‘
‘‘जी !"
‘‘मैं तो चाहूंगा कि आप इन सब के बदले कैश ही दे दें।"
‘‘जी ??!!"
"जी।"
"..जी..।"
सत्संग* लघुकथा* संजय पुरोहित
टी.वी. में दर्शन देने से पॉप्‍युलर हुए स्वामीजी का प्रवचन। बड़ा पाण्डाल। कई महिलाएं अपनी बहूओं सहित सत्संग का पुण्य कमाने टूट पड़ी। इतनी देर बैठने की आदत नहीं होने के कारण बहूओं की कमर दुखने लगी। वे बेचारी बैठने की मुद्राएं बार-बार बदल रही थी। यह देख, स्वामीजी मंद-मंद मुस्कुराये। अपने चीफ चेले को बुलाया। उसके कान में कुछ कहा।
प्रवचन समाप्त हुआ। पाण्डाल के निकासी द्वार पर कमर दर्द का 'आध्यात्मिक' मल्हम विक्रय के लिए उपलब्ध था।
'आध्यात्मिक' मल्हम खूब बिका!


सावधान*लघुकथा*संजय पुरोहित
बाहुबली की कोठी के बाहर प्‍लेट लगी थी-'कुत्‍ते से सावधान'
कोठी में कोई कुत्‍ता नहीं था।


वक्त*लघुकथा*संजय पुरोहित
मालती जब बहू बन कर आई तो सास के निरंकुश, कठोर अनुशासन में बंध कर जीवन की उमंग खो बैठी। सास का देहान्त हुआ। वक़्त गुज़रा। इकलौते पुत्र का विवाह हुआ। बहू आई तो मालती अपनी छाया बहू में देखने लगी। उसने बहू के लिए आज़ादी के सारे दरवाज़े खोल दिये। वक़्त गुज़रता रहा।
बहू की स्वच्छंद आज़ादी की कीमत पर मालती आजकल अपने पति के साथ ‘ओल्ड एज होम‘ में बाकी जीवन गुज़ार रही है।


*चिंतन**लघुकथा**संजय पुरोहित*
नुक्कड़। चाय के सबङकों के साथ 'सर्वहारा विरोधी सत्ता' को उखाड़ फेंकने पर चिंतन-चर्चा। अचानक कुछ लोग दौड़ते हुवे निकले। एक ने लाल चश्मे को दुरुस्त करते हुये भागने की वजह पूछी।
युवक चिल्लाया, "एक पागल सांड इधर ही आ रहा है! भागो!!"
उसकी बात ख़त्म होते-होते सारे विचारक भाग छूटे।
चिंतन लावारिस हो गया।

मजा*लघुकथा*संजय पुरोहित
बेटे को गली में पतंग लूटते देख, साहब डांटते हुए बाजार ले गये। पतंग-मांझा दिलाते नसीहत दी-कभी पतंग लूटने के लिए नहीं भागेगा। बेटे ने सिर हिलाया।
कुछ दिनों बाद साहब 'मोटा हाथ' मारकर ब्रीफकेस में डाल घर लौटे। देखा, बेटा फिर गली में पतंग लूट रहा था। साहब डांटते बोले, ‘‘पतंग-मांझा दिलवाया था।अब क्यों पतंग लूटने के लिए भागता है ?‘‘
‘‘पापा, जो मजा लूटने में है, वो खरीद कर उड़ाने में नहीं है।‘‘ बेटे ने उत्‍तर दिया। साहब कुछ न बोले। ब्रीफकेस को कस कर पकड़, घर के अन्दर हो लिये।
*यू-टर्न*लघुकथा*संजय पुरोहित
"देखिए, मुझे सम्मान की कोई इच्छा नहीं। बहुत हो गया सम्मान, अब तो चिढ़ सी लगती है।" साहित्‍यकार बोले।
"श्रीमान्जी, हम आपकी भावनाओं का आदर करते हैं। कृपा कर एक सुयोग्य नाम तो सुझा दीजिये, जिन्‍हे ये सवा दो लाख का पुरस्कार दिया जा सके।" संस्था प्रतिनिधि ने निवेदन किया।
"हैं !! सवा दो लाख ?!!? आप लोगों के आग्रह ने मुझे भावुक कर दिया है। मैं अपनी स्वीकृति देता हूं। कब रख रहे है समारोह ?" अब साहित्यकार के शब्‍दों में मिसरी का पुट था। संस्था प्रतिनिधि निहाल हो गए।
*धूंआ*लघुकथा*संजय पुरोहित
नुक्‍कड़ पर बैठे जटाधारी साधु ने देखा..
मशीन में गन्‍ना जा रहा था, थाने में आम आदमी।
साधु ठठा कर हंसा। चिलम चूसी। धूंआ उगलते बोला, "हा!हा!! लोकतंत्र!"

*धंधा*लघुकथा*संजय पुरोहित
''भईये, कैसे दोगे तिरंगे-फरियां-झण्डे ?''
''मास्‍साब, जो रेट आई है, वही लगा दूंगा।''
''अरे मुझे रेट-वेट से मतलब नहीं। पहली बार स्‍टोर का चार्ज मिला है। ये बता, किस भाव देगा। बिल कितने का काटेगा ?''
''मास्‍साब। नये हो। मुझे नहीं जानते। बहुत धंधा किया साब, तिरंगे के लिए कभी उल्टा-सीधा नहीं किया। जो भाव है, सो है।''
मास्‍साब हकबकाये। अनपढ़ ने ज्ञान चुभो दिया था। चुपचाप सिरक लिये।
*मौन नारे*लघुकथा*संजय पुरोहित 

न्‍याय के लिये दुखियारी राजधानी आई। पड़ गयी मीडिया के सामने। न्‍यूज़ चैनलों ने उसे नारे 'दिये', 'लगवाये'। नारे तो लगे, पर स्‍टोरी फीकी थी। मसाले के लिये अभागी को आगे-पीछे, चलवा कर रिकॉर्डिंग की। ये गये, तो अख़बार वाले आ गये। फिर नारे लगाने को कहा। वह यंत्रवत नारे लगाने लगी। फोटोग्राफर ने टोका, 'अरे फोटो अख़बार के लिये है, उसमें आवाज़ नहीं आयेगी। 'मौन नारे' लगाओ।'' बेचारी समझी नहीं तो रिपोर्टर ने डाइरेक्शन दिया, ''मुंह खोलो। हाथ खड़े करो। हो गये 'मौन नारे'।'' उसने ऐसा ही किया...पर...अब तक वह टूट चुकी थी। उसने अपनी जांघों के बीच दोनों हाथ धरे। कराह भरी एक सांस लेते हुए पूछा, ''साहेब न्‍याय कहां मिलेगा ?''
मीडियाकर्मियों ने कोई जवाब नहीं दिया। वे अपना काम निपटा चुके थे। अभागी के नारे मौन ही रह गये।



*जमाई*लघुकथा*संजय पुरोहित*
साहब ने महसूस किया कि कॉन्‍ट्रेक्‍ट पर लगा लड़का बहुत मेहनती है। जल्दी ऑफिस आना, देर तक काम करना। वाह। परमानेंटों को तो शर्म आनी चाहिये। इतनी तनख़्वाह लेते हैं, धैले का काम नहीं करते। लड़के से प्रभावित साहब ने बड़े साहब से सिफारिश की। बड़े साहब ने लड़के को देखा। पहले प्रोबेशन पर रखा, फिर परमानेंट कर दिया।
साहब ने महसूस किया, अब लड़का देर से ऑफिस आने लगा। हाज़री लगा कर गायब। चाय पीने जाता, तो घंटों नहीं आता। सीट पर टिकता ही नहीं।
साहब भूल गये थे कि अब वह 'जमाई' बन गया है।
*विलंब*लघुकथा*संजय पुरोहित

रेलकर्मी ऑफिस में चार घंटे विलंब से आया। नाराज साहेब ने डांटा,"इतने लेट ? शेम ऑन यू !"
"सॉरी सर। क्या करता, टूर पर था। ट्रेन शेड्यूल फाइनल करके आज आया, लेकिन ट्रेन ही लेट थी।"
साहब के पास अब कहने को कुछ नहीं था।