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Thursday, April 29, 2010

छेड छेड कर छोडा गया सांप नक्‍सलवाद

छेड़-छेड़ कर छोड़ा गया साँप:- नक्सलवाद

सी.आर.पी.एफ. के पिचहत्तर जवानों के घरों में क्रंदन आज भी थमा नहीं है। नक्सलियों ने दंतेवाड़ा के समीप इतना भयानक कुकृत्य कर डाला, जिसने हर एक भारतीय को थर्रा दिया। एक साथ इतने परिवारों का बेहाल होना किसी भी मनुष्य को झकझोरने के लिए पर्याप्त है। जबसे नक्सलबाड़ी ने इसे अंकुरित किया तब भी हमारे नीति नियंताओं ने इसे एक तात्कालिक घटना समझा था और जब यह विषवृक्ष बन चुका है, तब भी हमारे नीति निर्धारक हिचकिचाहट भरी नीतियां इसके उन्नमूलन के लिए लगा रहे हैं। नक्सल आन्दोलन हमारी सड़ी-गली व्यवस्था के विरोध स्वरूप सामने आया था। रोटी के एक-एक कौर को तरसते कबिलाई क्षेत्रों ग्रामीणों ने प्रशासन, पुलिस और डण्डे के जोर पर उन्हे धकियाने वाले समस्त लोगों के विरूद्ध एक से एक को जोड़ते हुए ऐसा सिण्डीकेट तैयार कर डाला, जिसे बेधना असंभव तो नहीं, किंतु आसान भी नहीं होगा। 
देश के लगभग सभी इलाकों में लोग नेताओं से, शासन से और पुलिस से पीड़ित है। ये तीनों ही वर्ग अपने-अपने तरीके से लोकतंत्र मंे अपने लिये शासन करने के छुटके रास्ते निकाल लेते हैं। सालों साल चलते मुकदमों ने जहां न्याय में देरी को ही न्याय की विशेषता बना डाला है, वहीं राजनेता करोड़ों रूपये लगाकर चुनाव में कूदते हैं और उसके दुगुने अपने पांच सालों में वसूल करते हैं। सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी ये समझ सकता है कि ऐसे रक्षक क्या वास्तव में रक्षा करेंगे या इस पीढी से लेकर अगली पीढियों तक जीवन सुगम करने के जुगाड़ में जुटेंगे। कारण भी बड़ा रोचक है कि इन नीति निर्धारकों को हम ही तो चुनते हैं। अन्याय के मारे पीड़ित शोषितों में लावा असंतोष के रूप में धीरे धीरे असंतोष बढता है। आपस में सताये हुए लोगों का दर्द का रिश्ता बनता चला जाता है। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी व्यवस्था खड़ी कर लेते हैं। ऐसी व्यवस्था जहां अदालत हो तुरन्त, न्याय हो तुरन्त, और सजा हो, वो भी तुरन्त। ऐसी व्यवस्था किसी को भी लोकतंत्रीय विश्वास वाले नागरिक को अखर सकती है। खासकर लोकतंत्र के सांचे में ढले लोगों को। लेकिन अन्याय से ग्रस्त व्यक्ति आखिर क्या चाहता है, न्याय और वह उन्हे मिलता है इन अवैध अदालतों में। इन शोषितों में एक बात घर कर जाती है कि संवैधानिक अधिकार प्राप्त अदालतों में दशकों तक न्याय नहीं मिलता। धीरे धीरे सभी बिन्दु मिल कर असंतुष्ट नागरिकों को बगावत की ओर धकेलते चले जाते हैं।   
तो क्या नक्सली क्रांति की ओर जा रहे हैं ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब देना किसी के लिए भी सहज नहीं होगा। राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि या तो सांप को छेड़ो मत, और छेड़ दिया तो उसे जिन्दा मत छोड़ो। लेकिन हमारे राष्ट्रीय पंचों ने किया ठीक इसका उलट। उन्‍होंने जगह-जगह सांपों को छेड़-छेड़ कर छोड़ रखे हैं जो अपने अपने मौके पाकर डसने का काम बदस्तुर कर रहे हैं। कभी मिजो विद्रोही तो कभी नगा, कभी उल्फा तो कभी बोडो, कभी खालिस्तानी तो कभी नक्सली।  अलग अलग रूप अख्त्यार कर विद्रोही केन्द्रीय सत्ता को आखें दिखाते रहे हैं। शायद ये आजाद भारत के जीन्स में है कि समस्या को छोटे से बड़ा होने दिया जाए और जब पानी सर से गुजरे तो मजबूर होकर कार्यवाही की जाए। नक्सलवाद एक ऐसा ही छेड़-छेड़ कर छोड़ा गया साँप है तो युवा हो चुका है और अब डसने की प्रक्रिया भी आरम्भ कर चुका है। 
ये प्रश्न वातानुकूलित कक्षों में बैठे लोगों की चर्चा के केन्द्र बने हुए हैं कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी संख्या वाली फौज के एक साथ पिचहत्तर फौजियों की नृशंस हत्या का दुस्साहस नक्सलियों में आया कहां से ? लगातार मजबूत होते जा रहे नक्सलियों का आधार क्या है ? क्या वे आतंकवादी हैं ? क्या वे देशद्रोही हैं ? हकीकत धीरे-धीरे सामने आ रही है। पहली बात तो ये काबिले गौर है कि देश के अनेक राज्यों के हजारों वर्ग किलोमीटर पर केवल और केवल नक्सलियों का राज चलता है। यहां भारत का संविधान कोई मायने भी रखता है या नहीं, इसका परीक्षण इन जंगलों में इनकी अपनी सेनाएं, अदालतें, अपने कानून और अपने फैसलों को देख कर समझा जा सकता है। नक्सलियों के बर्बर हमलों के बावजूद भी हमारे देश में ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है जो उनके समर्थन में खड़े रहते हैं। यहीं से नक्सलियों को मिलता है नैतिक समर्थन। उन्हे ऐसा लगता है कि वे किसी भी सत्ता से भिड़ सकते हैं। नक्सलियों को केवल कबिलाई लड़ाके समझने की भूल भी हमारे सैनिक कर चुके हैं। अत्याधुनिक अस्त्र, शस्त्र से लैस नक्सली, अब सूचना प्रौद्योगिकी की समस्त सुविधाओं को अपने प्रचार-प्रसार के लिए उपयोग में ले रहे हैं। 
आज आवश्यकता इस बात की है कि नक्सलियों के बारे में दकियानुसी और नैतिकतावादी बातों को पीछे छोड कर अपनी सेना को और बेहतर रूप से तैयार करते हुए सम्पूर्ण ताकत झोंक कर नक्सलियों का उन्नमूलन किया जाए। पुराने चश्में से नयी सुबह नजर नहीं आती। इसलिए आवश्यकता है एक ठोस कार्यवाही की। नक्सलियों ने भारतीय संविधान को ललकारा है। उसने भारतीय फौज से भिड़ने का दुस्साहस किया है। जो संगठन लगातार हजारों लोगों की हत्याओं को संगठित रूप से अंजाम देता है उसे केवल और केवल आतंकवादी संगठन समझा जाना चाहिये और कुछ नहीं ।बेशक उनका आरम्भ स्थापित व्यवस्था के कुचक्र को तोड़ने के लिए हुआ था लेकिन अब ये पूरी तरह संगठित आतंकवादी संगठन है। नक्सलियों का दूरगामी लक्ष्य है भारत की सत्ता तक अपनी पहुंच बनाना। आज यह बात बचकानी लग सकती है लेकिन यदि इन्हे ऐसे ही संगठित होने दिया गया तो कहीं दो-तीन दशक बाद हम पछताते न रह जाऐं। आज वक्त है कि हम इस बात का भी फैसला करें कि हम या तो नक्सलियों के साथ हैं या फिर उनके विरूद्ध। यहां तटस्थता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिये। बन्दुक के बल पर सत्ता का स्वप्न देखने वालों के द्वारा किये गये नरसंहारों की ओर आखें बन्द नहीं होनी चाहिये। नक्सलियों को नैतिक समर्थन देने वालों को भी नक्सलियों के समान ही आतंकवादी समझा जाना चाहिये, ये ही वे लोग हैं तो इनकी बगावत को लगातार सुलगाये रखते हैं। ऐसे तमाम कॉरपोरेट्स जो छत्तीसगढ, झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, बिहार में  अपने उद्योगों को चलाये रखने के लिए नक्सलियों को आर्थिक सहायता देते हैं, वे भी कानून के शिकंजे में आने चाहिये। हर दोषी कटघरे में होना चाहिये लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखने का समय है कि ये समस्या हमारी व्यवस्था की खामियों की उपज है। नक्सली इलाको में रहने वाले सभी लोग ना तो नक्सली हैं और न ही वे नक्सलियों के समर्थक हैं। कुछ भय से उनके साथ हैं तो कुछ अन्य विकल्प नहीं होने के कारण उनका साथ देने का मजबूर हैं। यहां के नागरिक दशकों तक अपने संसाधनों का विदोहन सहते रहे और सूखी रोटी ही पा सके थे। यह प्राकृतिक संपदा उनका प्राकृतिक अधिकार भी है और इस संपदा से आने वाले धन पर भी इनका ही अधिकार भी है। इन क्षेत्रों में एक बार पुनः भरोसा पैदा किया जाना चाहिये कि सरकारें उनके विकास के लिए जी जान से जुटने को तैयार है। यह भरोसा ही लोकतंत्रीय आस्था को नक्सली प्रभावित इलाकों में पुनर्जीवित कर सकता है। 
नक्सली समस्या नासूर बन चुकी है और इसका ईलाज भी उसी रूप में किया जाना चाहिये। यह समय है आर या पार का। भारतीय सेना और वायु सेना दोनों केन्द्रीय पुलिस रिर्जव फोर्स और राज्य पुलिस के साथ समस्त संसाधन झोंके तो नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने में अधिक समय नहीं लगेगा। अब और देरी का मतलब है नक्सलियों को बख्तरबन्द होने के लिए और मोहलत देना जिसका परिणाम पहले से भी भयानक हो सकता है।  

3 comments:

  1. आपसे सहमत।...बहुत अच्छा लिखा है आपने धन्यवाद! इस पोस्ट के लिए ... आगे भी लिखते रहे

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  2. aap je se qalm ke sipaahi to desh ke javano ke saath kandhe se kandha milaqkar har morchhe par mushted h par afsos jenke haathno me in zharile sanpno ki kat h afsos vohi inhe dudh pilaakar paal rhe h

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  3. कुछ समय पूर्व छत्‍तीसगढ जाने का मौका मिला । वहॉं के लोगो से सुना कि नक्‍सलियों से प्रभावित राज्‍यों के विकसित जिलों के अलावा दूर दराज और अन्‍दरूनी हिस्‍सों के ग्रामीण क्षेत्रों की जनता नक्‍सलियों को वहॉं ऑंतकवादी नहीं मानती, और उनका साथ देती हैं, क्‍यूंकि वहॉं उनको उन डाकुओं की तरह माना जाता है जो धनाढ्य वर्ग को लूटकर गरीबों के मसीहा समझे जाते थे । संजय जी, आपने तो एक और भयावह स्थिति बताई कि तमाम कॉरपोरेट्स अपने उद्योगों को चलाये रखने के लिए नक्सलियों को आर्थिक सहायता देते हैं ।
    दुखद...................अति दुखद..........।

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