संजय के इस ब्‍लॉग में आपका स्‍वागत है. मेरा सिरजण आप तक पहुंचे, इसका छोटा सा प्रयास।

Friday, November 27, 2009

टीवी चैनल्स और बेबस आम दर्शक

अभी दो दशक पूर्व की ही बात है, किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि ‘‘बुुद्धु बक्सा‘‘ यानि टीवी को रेडियो स्टेशनांे की तरह अलग-अलग चैनल्स बदल कर देखा जा सकेगा। एक अनुमान के मुताबिक आज सैकड़ांे चैनल्स अपने-अपने कार्यक्रमांे के माध्यम से एक-दूसरे से आगे बढने की होड़ लगा रहे हैं। इनका एक मात्र उद्ेश्य है टी.आर.पी. बढाना। मनोरंजन, समाचार, खेलकूद, ज्ञान, स्वास्थ्य, संगीत, अध्यात्म, कार्टून जैसे विषयांे पर ढेर सारे चैनल आपके समय को डकारने के लिए तैयार हैं। सामान्य जन-जीवन मंे टी वी चैनल्स केवल मनोरंजन के लिए अपना स्थान बनाने आए थे किंतु आज इन्हांेने सम्पूर्ण जीवनचक्र को प्रभावित करना शुरू कर दिया है।
टेलिविजन को सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य मंे यदि हम देखंे तो पायेंगे कि इसके भी सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव हैं। आज डिस्कवरी चैनल, नेशनल ज्याॅग्राफिक चैनल, द हिस्ट्री चैनल्स ऐसे चैनल्स हैं जो मनुष्य के ज्ञान को बढा रहे हैं। विज्ञान की प्रगति, ब्रह्माण्ड के रहस्य, तकनीकी की तीव्र गति, तथ्यांे की खोज, अनुसंधान, स्वास्थ्य की पेचिदगियां और विश्व के सम्पूर्ण इतिहास पर नई नज़र इन चैनल्स के माध्यम से दर्शक तक पहुंचती है। ये चैनल्स न केवल हमारे विचारांे को नई रोशनी देते हैं बल्कि नया सोचने के लिए प्रेरणा भी प्रदान करते हैं। पृथ्वी, समुद्र और अंतरिक्ष की गहराईयांे के अनसुलझे रहस्यांे पर हमंे आश्चर्यचकित करती हुई ये चैनल्स टेलिविजन की वास्तविक और सही उद्ेश्य को रेखांकित करती है।
एक दौर ऐसा भी था जब दूरदर्शन के धारावाहिक ‘हम लोग‘, ‘बुनियाद‘, ‘खानदान‘, ‘कैम्पस‘‘ ‘जंगल बुक‘ आदि ने लोगांे को दीवाना बना दिया। इस दीवानेपन की हदंे भी पार हो गई जब ‘रामायण‘ और ‘महाभारत‘ छोटे पर्दे पर आया। इस समय टीवी का नशा सर चढ कर बोलने लगा। इन धारावाहिकों के प्रसारण के समय सड़कें सूनी हो जाती थी । कहना ही होगा कि ये अपने आप मंे एक अजूबा थे। आम भारतीय दर्शक इन्हे देख कर मंत्रमुग्ध हो जाता था। और इसके बाद आया निजी सेटेलाईट चैनल्स का तूफान। टेलिविजन की विभिन्न चैनल्स के पदार्पण के साथ ही दूरदर्शन का एकाधिकार समाप्त हो गया। दर्शकों को जब विकल्प मिले तो दूरदर्शन हाशिये पर चला गया। नई चैनल्स ने मनोरंजन को आधार बनाया । देखते ही देखते जी टीवी, सोनी टीवी, होम टीवी, स्टार टीवी दर्शकों पर हावी होने लगे। इसके बाद तो चैनल्स की झड़ी ही लग गई। छोटे-मोटे सभी सीरियल्स दर्शकों को पसन्द आने लगे। अपनी पसंद के धारावाहिकों के लिए परिवार के लोग बुद्धु बक्से के आगे चिपके हुए मिलते। इसी दौर मंे आया स्टार प्लस का अमिताभ बच्चन की प्रस्तुति मंे ‘कौन बनेगा करोड़पति‘। सामान्य ज्ञान पर आधारित इस अत्यन्त रोचक कार्यक्रम को अमिताभ ने बुलंदियांे तक पहॅंूचाया। इसी की समाप्ति के साथ ‘क्यांे कि सास भी कभी बहू थी‘, ‘कहानी घर-घर की‘ आदि एकता कपूर के सीरियल ने दर्शकों के दिलांे पर कब्जा कर लिया जो आज तक जारी है। इसी दौर मंे चैनल्स के मालिकों ने अवसर को भुनाते हुए चैनल्स को गुणित रूप मंे बढा डाला। स्टार टीवी अपने नये चैनल्स न्यूज, प्लस, स्पोर्ट्स, गोल्ड, उत्सव, वल्र्ड के साथ उतरा तो सोनी टीवी ने सेटमेक्स, सब टीवी को अपने गुलदस्ते मंे डाला। जी टीवी ने तो नेक्सट, एक्शन, क्लासिक, सिनेमा जैसे चैनल्स के साथ ही अब प्रांतीय भाषाआंे के दर्शकों को भी अपनी नई चैनल्स के माध्यम से जुटाने की कोशिश की है।
किंतु चैनल्स की इस क्रांति के घोर नकारात्मक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। अश्लील कार्यक्रमांे पर लचर बंदिश होने से बच्चे समय पूर्व ही मैच्योर हो रहे हैं। बच्चांे की संस्कृति का स्तर तेजी से ढलान की ओर है उनकी शालीनता उद्ण्डता मंे बदल रही है। एम टीवी, वी चैनल, फेशन टीवी, और संगीत पर आधारित दूसरे चैनल्स अश्लीलता को खुले आम प्रदर्शित करते हैं जिन्हे आम पारम्परिक भारतीय दर्शक अवाक और हैरान होकर देख रहा है। पाश्चात्य सभ्यता के कलेवर मंे अश्लीलता परोसते इन चैनल्स पर कोई सरकारी अंकुश है भी या नहीं, इसका पता ही नहीं चलता। दोष केवल इन्ही का नहीं है। पारिवारिक पृष्ठ भूमि के बने लम्बे सीरियल्स मंे परिवार की कलह, बहु पति, बहु पत्नी, अवैध संबंध, कुटिलता, षडयंत्रांे के आधिक्य ने भारतीय परिवार को भी कहीं न कहीं विडम्बनाआंे मंे डाला है। इस दौर मंे सबसे खराब प्रभाव जिन पर पड़ा है वो हैं, बच्चे। एनिमेशन पर आधारित उनके चैनल्स ‘डिज्नी वल्र्ड‘, ‘कार्टून नेटवर्क‘, ‘हंगामा‘, ‘जेटेक्स‘ आदि उनका मनोरंजन करने के बजाय खूनी खेल, अभद्र व्यवहार सीखा रहे हैं। रही सही कसर पूरी कर रहे हैं खेल चैनलांे के डब्ल्यूडब्ल्यूएफ जैसे प्रोग्राम, जो बच्चांे को मरने मारने की ट्रेनिंग घर बिठाए दे रहे है। आज अभिभावक भी हैरान है कि वो बच्चांे को क्या दिखाए और क्या नहीं। इतना ही नहीं समाचार चैनल्स भी अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं। अंधविश्वास और अपराध के नाट्य रूपांतरण के माध्यम से दर्शक जुटाने की होड़ मंे वे सामाजिक ताने-बाने को कितना कमजोर कर रहे हैं, शायद ये उनको अहसास ही नहीं है।
चैनल्स का ये युद्ध थमने वाला नहीं है, अब तो ये दर्शक यानि आप पर निर्भर करता है कि आप किस प्रकार इसके समारात्मक पक्ष को अपनाते हुए नकारात्मक पक्ष से बच सकें।

2 comments:

  1. संजय जी नए ब्‍लॉग के शुभारंभ पर हार्दिक बधाई । ब्‍लॉग की दुनिया में आपका हार्दिक स्‍वागत है । आपके ब्‍लॉग पर हिन्‍दी पढने में थोडी असुविधा हो रही है । खासकर कुछ मात्राएं शब्‍दों के बाद आ रही है । उनको ठीक कर लें ।
    http://mahendra-freesoftware.blogspot.com/

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  2. बहुत रोचक आलेख लगा

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