अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव विशेष सीरीज -
समापन कडी
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव : भारत की आशाएं और आशंकाएं
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों पर इस विशेष सीरीज की पिछली चार कडियों में दोनों बडी पार्टियों, रिपब्लिकन्स और डेमोक्रेटस
की नीतियों, उनके उम्मीदवारों, अमेरिकी जनता की प्रतिक्रियाएं, विश्व के देशों
की दिलचस्पी पर चर्चा की गई। इस कडी में हम इस चुनाव के उपरान्त भारत अमेरिकी
रिश्तों पर आने वाले सकारात्मक या नकारात्मक परिणामों का विश्लेषण करेंगे।
भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र है। अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है।
दोनों ही देश लम्बे समय तक एक दूसरे को नजर अंदाज करते रहे। भारत का रूस की तरफ
झुकाव, गुट निरपेक्ष आन्दोलन के अगुवा के रूप में उभार, भारत के नेताओं के विश्वनेता
बनने के ख्वाब, अमेरिका के पाकिस्तान के प्रति आंख मूंद कर भरोसा करने की नीति
आदि कुछ ऐसे विषय रहे जिनके कारण दोनों ही देशों के रिश्तों में कोई खास गर्मजोशी
नहीं आई। अमेरिका भारत का स्वाभाविक मित्र कभी नहीं रहा। भारत चीन युद्ध के दौरान
अमेरिका का बेरूखापन, भारत पाकिस्तान युद्धों में पाकिस्तान की तरफदारी, ईरान के
प्रति भारत के सहानुभूतिपूर्ण रवैये से नाराजगी जैसे कई ऐसे विषय रहे जिनके कारण
अमेरिका ने भारत को वैसी तवज्जो कभी नहीं दी]
जिसका कि भारत हकदार था। अमेरिकी राष्ट्रपतियों के भारतीय दौरे रस्मी होते,
समझौते कागजी होते और ताजमहल देख कर वे अपने देश चले जाते। भारत ने भी अमेरिका की
तरफ कभी आशा भरी नजरों से नहीं देखा। भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान अमेरिका ने
अपने युद्धपोतों तक को तैनात किया था। दुनिया की दूसरी सबसे बडी शक्ति रूस का साथ
मिला होने के कारण भारत ने अमेरिका के आगे हाथ नहीं फैलाया। बल्कि यूं कहना चाहिये
कि अमेरिका भारत का कुटिल शत्रु ही था। आपको याद होगा कि एक दौर ऐसा भी आया जब भारत
में अकाल से लोग भूखे मर रहे थे, किंतु अमेरिका ने अपने देश में अनाज का अधिक उत्पादन
होने पर उसे समुद्र में फेंक दिया पर भारत को नहीं दिया। पूंजीवाद के गढ के रूप
में, दुनिया के शक्तिकेन्द्र के रूप में अमेरिका ने रूस के साथ शक्ति संतुलन
बनाया। शीत युद्ध की समाप्ति पर अमेरिका दुनिया का 'दादा' बन गया। रूस के कमजोर
होने का अमेरिका को तो दुनिया भर में अपनी बढत बनाने का मौका मिला, पर भारत असमंजस
में रहा। लेकिन भारत पस्त नहीं हुआ। धीरे-धीरे ही सही पर भारत ने अपने कदम ठोस
रूप से रखे। भारत के लिये तब भी अमेरिका शत्रु के मित्र शत्रु के रूप में ही
परिभाषित रहा था।
अब
दुनिया बदल चुकी है। भारत भी बदल चुका है। अमेरिका भी। आज भारत दुनिया की एक तेजी
से बढती अर्थव्यवस्था है। अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया के देशों के लोगों के
लिये भारत एक विशाल बाजार है। इस बाजार के नियंत्रकों, यानी भारत सरकार से दोस्ती
का हाथ बढाने के लिये व्यापारी देश तैयार खडे हैं। वैसे तो चीन, ब्राजील,
युरोपियन युनियन का हर देश कतार में है लेकिन अमेरिका इनमें सबसे आगे रहा है। इस
का कारण भारत के प्रति दुनिया का बदलता रवैया है। पूर्व पी.एम.मनमोहन सिंह ने भारत
के आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया बिल्कुल सही समय पर शुरू की। इसका जबर्दस्त
फायदा भारत को आर्थिक शक्ति की कुर्सी की ओर बढने में हो रहा है। अब भारत उस
स्थिति में पहुंच रहा है, जिसमें दूसरों को भारत की दरकार है, भारत को नहीं। भारत
के युवाओं के देश होने, सस्ती लेबर उपलब्ध होने, विशाल जनसंख्या में विशाल
बाजार के मौजूद होने, परमाणु शक्ति बनने, अंतरिक्ष में लगातार मिल रही सफलताओं
ने, एक से एक मारक मिसाईलें, हेलीकॉप्टर, सुपर कम्प्युटर भारत में ही बनाने,
सूचना और प्रादयोगिकी क्षेत्र में भारत के युवाओं का कब्जा होना जैसी उपलब्धियों
ने दुनिया को भारत को सोचने के नजरिये में आमूलचूल बदलाव ला दिया है।
अमेरिका
के नागरिक ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लोग इस बात को भलि-भांति जानते हैं, कि
अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव कोई भी जीते, अमेरिका की पारम्परिक नीतियों में कोई
खास बदलाव नहीं आता। अमेरिका दुनिया भर में अपने हितों के लिये ही रणनीतियां बनाता
है, उनको क्रियान्वित करता है। फिर भी बदलते विश्व परिद़श्य में इन उम्मीदवारों
के भाषणों, नीतियों का विश्लेषण करने पर जो तसवीर सामने आती है, वह आशाएं भी
जगाती है और आशंकाएं भी। हिलेरी क्लिंटन डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार है। यदि
हिलेरी चुनाव जीतती हैं तो मेरा विश्लेषण ये है कि भारत के लिये इसके परिणाम
सकारात्मक होंगे। हिलेरी अपने पति पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ अमेरिका
की प्रथम लेडी के रूप में दो बार भारत आ चुकी है। इसके बाद अमेरिकी विदेश मंत्री
के रूप में भी भारत का दौरा एक नहीं बल्कि तीन बार कर चुकी हैं। हिलेरी भारत की
संस्क़ति की रग-रग से वाकिफ है। वह भारत को एक आध्यात्मिक देश, एक सुसंस्क़त
देख, विशाल संपदा वाला और दुनिया का नेत़त्व करने के गुण रखने वाला स्वाभाविक
मित्र मानती हैं। हिलेरी क्लिंटन, बराक ओबामा की नीतियों को ही आगे बढाने की
पक्षधर है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत के प्रति बराक ओबामा शासन की सैन्य, सामरिक,
आर्थिक नीतियां ही आगे बढेंगी।
चाहे
कोई नाक-भौं सिकोडे, लाख आलोचना करे, पर यह मानना ही होगा कि बराक ओबामा और नरेन्द्र
मोदी की कैमिस्ट्री ने विश्व के दो महानतम लोकतांत्रिक राष्ट्रों को बेहद करीब
ला दिया है। भारत ने अमेरिका को हमेशा मुददों पर आधारित समर्थन दिया था, लेकिन
बदलती हुई विश्व व्यवस्था के चलते भारत ने परम्परागत नीतियों से हट कर देशहित
में कुछ ऐसे कदम उठाये हैं, जिनका दूरगामी अनुकूल परिणाम सामने आयेगा। हाल ही में
अमेरिका और भारत में एक ऐसा रणनीतिक समझौता हुआ है जो अनतर्राष्ट्रीय स्तर पर
मील का पत्थर साबित होगा। भारत ने अपनी जमीन, समुद्र और वायू सीमा का सामरिक एवं
अन्य कारणों से उपयोग करने की अनुमति अमेरिका को दे दी है। वहीं अमेरिका ने विश्वभर
में फैले अपने सभी बेस पर भारतीय विमानों के उतरने में सहमति दी है। आतंकवाद से
पीडित इन दोनों देशों के बीच बढते जा रहे सटीक समन्वय और साझा सम्पर्क ने नयी
सफलताएं दिलाई है। भारत और पाकिस्तान को एक तराजू में तोलने के पूर्व के अमेरिकी
रवैये को कब्रिस्तान में दफना दिया जा चुका है। आज पाकिस्तान आतंकवाद की पाठशाला
और मजहबी दरिंदों का देश बन कर रह गया है। भारत हर लिहाज से काफी आगे निकल चुका
है। इसके अलावा ओबामा की नीतियों में भारत को प्राथमिकता के आधार पर सूची में सबसे
उपर रखा जाने लगा है। यदि हिलेरी इन्ही नीतियों पर चले तो भारत को फायदा होगा।
इसके अलावा भारतीय भारत की चिंता आप्रवासियों और विशेष रूप से आउटसोर्सिंग को लेकर
रही है। हिलेरी वर्तमान नीतियों की ही पक्षधर है, जिसका मतलब ये है कि भारत के
छात्रों को पूर्ववत लाभ मिलता रहेगा। हिलेरी का चुना जाना भारत के हित में होगा और
यही शायद विश्व हित में भी होगा।
डोनाल्ड
ट्रम्प रिपलब्लिक पार्टी के उम्मीदवार हैं। उनका सोच अलग है और अमेरिका की
नीतियों से बिल्कुल अलग है। स्थापित नीतियों को पूरी तरह बदलने की उनकी योजना से
भारत को नकारात्मक परिणाम झेलने के लिये तैयार रहना होगा। सबसे पहले तो उनके बयान
का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। मुसलमानों के प्रति उनके सख्त रवैये से नयी
समस्या उत्पन्न हुई है। उन्होंने मुसलमानों को अपने देश में घुसने नहीं देने
की धमकी दी है। वैसे हर देश को यह अधिकार है कि वह समस्त कदम उठाये जो देश की
सुरक्षा के लिये जरूरी हो लेकिन इसकी आड में एक धर्म को कटघरे में खडा करने की
उनकी कोशिश खतरनाक है। ट्रंप यकीनन आईएसआईएस सहित सभी आतंकी संगठनों को अमेरिका ही
नहीं बल्कि यूरोप से भी भगाने की नीति अपनायेंगे। यदि ऐसा होता है तो यह भारत के
लिये खतरे की घंटी है। आतंकियों का अगला टारगेट भारत हो सकता है। उनका मार्ग सरल
होगा। अफगानिस्तान में अलकायदा, तालीबान उनका स्वागत करेंगे तो पाकिस्तान पलक
पांवडे बिछायेगा। लश्कर ए तोयबा, जमात उल दावा जैसे संगठन तो वैसे ही पूरी दूनिया
में इस्लामिक शासन की स्थापना के मंसूबे पाले हुए है। इधर कश्मीर में आईएसआईएस
के झंडे लहराते हुए लोग उनका रास्ता बुहारने के लिये तत्पर है। भारत से युवाओं
का आईएसआईएस में भर्ती होने का मामला छोटा हो सकता है, पर कम गंभीर नहीं। यह संकेत
करता है कि आतंकवादियों की हरकतों के प्रति मौन रहने वाले, चुपचाप अपना काम करने
वाले 'स्लीपर सेल' जैसे लोग कभी भी अपने असली रंग में सक्रिय हो सकते हैं। इन
सबका मिश्रण भारत के लिये घातक हो सकता है।
ट्रंप
के चुने जाने पर दूसरी बडी समस्या जिससे भारत को दो चार होना पडेगा, वह है उसके
छात्रों के हाथ से रोजगार छीन कर अमेरिकन्स को दिये जाने की योजना। अमेरिका की
सेकडो कम्पनियां विश्व और विशेष रूप से भारत के मेधावी छात्रों से अपना काम
करवाती हैं। इससे अमेरिका में बेरोजगारी निरन्तर बढती जा रही है। ट्रंप ने इस पर
कडा रूख अपनाने का वादा किया है। इससे भारत को विदेशी मुद्रा के साथ ही अपने
छात्रों के लिये नये क्षेत्र तलाशने होंगे। ट्रंप व्यापारी है और उनके चुने जाने
पर यह संभव है कि विशाल भारतीय बाजार के मध्यनजर भारत उनकी आंखों का तारा भी बन
जाये। यह भी हो सकता है कि भारत की वास्तविकता के अध्ययन के बाद ट्रंप का नजरिया
कुछ बदल जाये। भारत के साथ अमेरिका इन विषयों पर और अधिक जुड जाये। मजे की बात यह
भी कम नहीं है कि अमेरिका में करोडों डॉलर दोनों उम्मीदवारों को भारतीय उद्योगपति
चंदे के रूप में दे रहे हैं, यकीनन वे इसका हिसाब भी मांगने की कूवत भी रखते
होंगे, जिसका मतलब भारतीय हित होंगे।
दोनों
उम्मीदवारों से भारत को आशाएं हैं, तो आशंकाएं भी। हमें उम्मीद यही करनी चाहिये
कि जो भारत के बारे में सकारात्मक सोच रखता हो, भारतीयों का भला करने की भावना
रखता हो, वही अगला राष्ट्रपति बने।
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