विभाजन की त्रासदी से
श्रेष्ठता के शीर्ष पर: हरदर्शन सहगल
श्री हरदर्शन सहगल का साक्षात्कार संजय पुरोहित के साथ
(26 फरवरी 1935 को कुंदिया, जिला मियांवाली (अब पाकिस्तान में) जन्मे हरदर्शन सहगल का
नाम आज हिंदी साहित्य जगत में एक बेहद सफल,
श्रेष्ठ और देश
भर की पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होने वाले साहित्यकार के रूप में आदर
के साथ लिया जाता है। युवा साहित्यकार संजय पुरोहित ने श्री हरदर्शन सहगल से खास
बातचीत की। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार के संपादित अंश)
मैंने सहगल साहब
से मुलाकात का समय मांगा। अभी आ जाईये, यह जवाब उन्होंने फोन पर
दिया। मैं झटपट सहगल साहब के निवास ‘संवाद‘ पर संवाद के लिये पहुंचा। सहगल साहब मेरा ही इंतजार कर रहे
थे। हमेशा की तरह अपने छोटे से अध्ययन कक्ष में किताबों के जंगल में घिरे। जैसे कि
रचना संसार की मूर्त रूपी किताबों को आगोश में समेटे हों। वहीं चिरपरिचित मुस्कान।
मुझे देखने के बाद मुस्कान में विस्तार आया। उसी टेबल-कुर्सी पर जहां से अनगिनत
अक्षरों को अपनी कल्पनाओं के साथ गूंथने की कला के महारथी शब्दशिल्पी हरदर्शन सहगल
विराजे थे। हिंदी जगत के बेमिसाल साहित्यकार-हरदर्शन सहगल। उपर एक रैक में उनके
आदर्श लेखक एन्टोव चेखव की सफेद फ्रेम में लगी श्वेत-श्याम तस्वीर। सामने गुरूजी
और माता-पिता की तस्वीरें। सब कुछ जैसे लेखन के मौन गवाह हों। मैंने कुर्सी संभाली, रिकार्डिंग बटन ऑन किया। अपने प्रश्न रखने शुरू किये-
संजय पुरोहित-आपके बचपन से ही शुरूआत
करते हैं। साहित्य के प्रति अनुराग कब से हुआ। कैसे हुआ ?
हरदर्शन सहगल-मेरी उम्र रही होगी यही
कोई दो-ढ़ाई साल। बस इतनी ही। मुझसे पूछा गया कि क्या बनोगे ? मैंने कहा कवि। एक बार घर का एलबम तैयार किया। एल्बम में
सबसे पहले रविन्द्रनाथ टेगोर का फोटो लगाया। कई दफा सोचता हूं ऐसा क्यों कर हुआ।
पेशावर (पाकिस्तान) में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई शुरू की। कलाशेखुपरा में फिर से
उर्दू में पढ़ाई करनी पड़ी। फिर पार्टीशन हो गया। बरेली आया। यहां हिंदी में फिर से
पढाई। हर दफा एक क्लास पीछे। (हंसते हुए) लोग आगे बढ़ते हैं और मैं पिछड़ता रहा।
हिचकोले खा-खाकर एज्युकेशन हुई। पर खूब अपनापन मिला। पढ़ने की आदत थी। बहुत ही
ज्यादा। मेरे माता-पिता हिंदी नहीं जानते थे। या तो उर्दू जानते थे या अंग्रेजी।
मैं हिंदी जानता था। मैं उन्हे कहानियां पढ़ पढ़ के सुनाता था। के.एम.मुंशी की
किताबें, वृन्दालाल वर्मा की
किताबें। और हां, एक मजेदार वाक़या सुनाता
हूं। शायद सातवीं या आठवीं कक्षा में रहा हूंगा। एक लड़का बहुत परेशान करता था। मैं
उससे लड़ तो नहीं सकता था, पर हां, लिख तो सकता था। मैंने उस पर एक उपन्यास ही लिख दिया।
शीर्षक दिया ‘बिल्लु-उल्लू‘। क्लास में पढ़ा, फिर फाड़ दिया। (इस वाकये
पर उनके साथ ही मैं भी हंस पड़ा) जिस उम्र में बच्चे खिलौने लेते हैं मैं किताबें
खरीदता था। वे किताबें मेरे पास अब भी पड़ी है। अब मैं सोचता हूं कि ये सब क्या था।
संजय पुरोहित- मतलब यह कि माता-पिता
जी ने परोक्ष रूप से आपकी पढ़ने की आदत को प्रोत्साहित ही किया।
हरदर्शन सहगल- बिल्कुल। लिखने-पढ़ने की
बहुत आदत रही है। मुझे याद है, जब छोटा था, माताजी-पिताजी मुझसे कहते-हरदर्शन शुरू हो जा। उन्हे
चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावनलाल वर्मा, के.एम.मुंशी बहुत पसंद थे....(कुछ याद करते हुए) हां, नानक सिंह, पंजाबी का बहुत बड़ा राईटर
है। उनकी कहानियां पसंद करते। उन्हे कहानी पढ़ कर सुनाते हुए मैं क्या करता, बीच में अपनी भी कहानी सुना देता था। (ठहाका मारते
हुए)....फिर पूछता कि वो कहानी कैसी लगी। वे कहते बहुत अच्छी थी। तब मैं कहता कि
ये मैने लिखी थी। वे बहुत खुश तो होते....पर उनके पास कोई गाईडलाईन नहीं थी।(एक
चित्र की ओर इशारा करते हुए) ये देखो, ये थे मेरे प्रोफेसर डा.
रामेश्वर दयाल अग्रवाल। इनको भी कहानियां सुना दिया करता था। उनकी बड़ी जान-पहचान
थी। उन्होंने भी कोई हैल्प नहीं की। वे भी यह सोचते होंगे कि ‘सहज पके सो मीठा होये‘
अपने आप संघर्ष
करने दो। उर्दू में भी लिखा। फिर मोह भंग हुआ। उर्दू में लिखना छोड़ दिया। पंजाबी
से ऑफर आती रही। पर मैंने जवाब दिया कि मेरे सोच की भाषा हिंदी है। मेरी शुरू की
कहानियां बड़ी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में छपी। अमृतराय, बालकिशन राव जैसों ने मेरी आरम्भिक कहानियां छापी।
संजय पुरोहित- विभाजन ने आप जैसे
संवेदनशील मन को पूरी तरह छिन्न भिन्न कर के रख दिया। विभाजन का जो दर्द था आपके
लेखन में शुरू से ही रहा है। आपकी आत्मकथा तक। उस दौर के बारे में कुछ बतायें।
हरदर्शन सहगल- वो अजीबोगरीब दौर था।
अच्छी, बुरी, त्रासद, हर्ष वाली सभी घटनायें
हुईं। वो सारी की सारी मेरे मन में फोटोग्राफ है। वो मेरे लेखन में आई। मेरा विषय
बहुत विस्तृत है। विभाजन। मेरा शुरू से पढ़ने का रहा। अपनी जड़ों से कैसे आदमी कटेगा
? सबसे बड़ी बात यही है। पेशावर, सक्खर, कुंडिया नहीं जाया जा सकता है पर बरेली जाया जा सकता है।
मालगाड़ियों का सफर। सिर पर सामान। पिता रेल्वे में थे। क्वार्टर मिला तो सांस में
सांस आई। जब पार्टीशन के दौरान एक तरफ जश्न मनाया जा रहा था, उसी समय, ठीक उसी समय वहां पर
कत्ले आम हो रहा था। आगजनी हो रही था। औरतों के साथ दुराचार हो रहा था। बहुतों को
तो ये भी नहीं पता था कि आज़ादी मिली है....आज़ादी किस कीमत पर मिली.....पार्टीशन के
दौरान जो लोग मिले उन्हे मैंने अपनी कहानियों के पात्र नहीं बनाये बल्कि वे खुद बन
गये। आज भी मुझे ऐसे सपने आते हैं कि मेरे खिलौने कोई छीन कर ले जा रहा है।
संजय पुरोहित - इतना लेखन। निरन्तर लेखन। गहरा लेखन। अथक लेखन। आखिर कैसे संभव हो
पाया ?
हरदर्शन सहगल- ये मैंने नहीं लिखा।
कुछ नहीं लिखा। ये मुझसे लिखाया गया। मैं नहीं जानता कि क्यों लिखाया गया।
संजय पुरोहित- मैं समझा नहीं....आपके
कहने का मतलब है कि आपने जो लिखा वह आपसे लिखाया गया...
हरदर्शन सहगल- हां! बिल्कुल। मैंने
अपनी आत्मकथा ‘डगर डगर पर मगर‘ में मैंने इसको लिखा है।
संजय पुरोहित- क्या कभी ऐसा हुआ कि
आपकी कहानियों के पात्र आप पर हावी हुए हों। पात्र बोल कर कह रहे हों कि मेरे साथ
ये हुआ। इसे दर्ज करो.......
हरदर्शन सहगल- (कुछ सोचते
हुए)......हां, पात्र भी हावी हुए हैं।
ये पात्र खुद आते हैं। दरअसल सपनों में। अपना नाम बता जाते हैं। मैं रात को
सोते-सोते उठता हूं। लिख लेता हूं। उस पात्र का कर्ज भी उतारना होता है, जो अपना नाम बताकर गया है। काफी कुछ लिखा जाता है। फिर पढ़ता
हूं, फिर याद करता हूं। लिखते
लिखते अपने पात्रों के साथ कई दफा रोने लगता हूं। हंसने लगता हूं। तनाव से
पसीने-पसीने हो जाता हूं। पर मैं थोड़ा सचेत भी रहा। बहुत सारे लेखक कवि पागल भी हो
गये। ये देखो, (रैक्स में सजी तस्वीर की
ओर इशारा करते हुए) मेरे लिये जो एक पूज्य लेखक है एन्टव चेखव। ये तस्वीर मास्को
से ही आई है। मेरी रचनाएं भी वहां रखी गयी और मुझे पुरस्कृत भी किया गया....तो मैं
कह रहा था कि मोपासां, चेखव, लुसियन सभी डाक्टर थे। मोपांसा के साथ ट्रेजेडी ये हुई कि
उसको सारे चरित्र, सारी चीजें इतनी हावी हो
गयी कि मेज कुर्सियां भी चलती फिरती दिखने लगी। वो पागल हो गया। नौ साल। विपुल
साहित्य। मार्केबल साहित्य। मैं आपको पूरी बात बता दूं कि मजाज था, शैलेष भटियानी, मंटो सभी पागल हो गये। जो
लिख लिया। मैं अपने पात्रों के साथ सचेत रहा। लेखन सतर्क रहकर करना चाहिये।
संजय पुरोहित - क्या आपको ऐसा लगता है
कि विदेशी लेखकों की तुलना में हमारा भारतीय साहित्य अभी भी नहीं आ पाया है ?
हरदर्शन सहगल- ये तो व्यक्तिगत चीज
है। मैंने खूब पढ़ा। यदि कोई मेरी तरह टॉल्स्टॉय, गोर्की, पुश्किन, दोस्तावस्की और इन जैसे
विश्वस्तरीय लेखकों को पढ़ता है तो हमें हिंदी साहित्य के स्तर का आकलन हो पाता है।
ऐसे लेखकों की इस तरह से एक लम्बी लाईन है। एक दौर ऐसा था कि पता नहीं कौन सी ऐसी
हवा चली कि इतने अच्छे लेखक आये और छा गये। मुझे नहीं लगता कि हिंदी....कोई
व्यक्ति कहता है कि आप बहुत अच्छे लिखते हैं। मैं कहता हूं कि मैं नहीं मानता। मैं
पूछता हूं कि आपने और किस किस को पढ़ा है ? तुलना की होती, तो मानता कि मैं कहां पर हूं। ‘मैं अच्छा लिखता हूं।‘
यहां यही प्रशंसा
हो रही है। हमारे यहां लोग पढ़ते कम है (फिर हंसते हुए) वैसे नहीं पढ़ते तो अच्छा ही
है। वो आदमी ज्यादा खुश रहता है, जो भ्रम में रहता है।
संजय पुरोहित- तो आपका मानना है कि
हिंदी में उस दर्जे का बढ़िया साहित्य नहीं है जो अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं में
है....
हरदर्शन सहगल- माफ करें, हिंदी में वो बढ़िया साहित्य नहीं जो अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं
में है। स्टिफन जिग, उसको कोई कम्पीट कर
दे...जिनका लिखा ‘लेटर फ्रॉम एन अननोवल
लेडी‘ नहीं पढ़ा आपने ? (मैंने ना में गर्दन हिलाई) असली बात है कि पढ़ा जाना चाहिये।
विक्टर ह्यूगो, शानदार लेखक। मैंने एक
कहानी पढ़ी थी। ‘आठ रूबल‘ ये कहानी थी चेखव की। वो कटिंग अभी भी मेरे पास रखी है। 1952 में वो कहानी पढ़ने के बाद मैं हिल गया। इससे पहले मैं चेखव
को नहीं जानता था। मैं ढूंढता फिरा कि काश ! चेखव की कोई कहानी मिल जाये। नयी सड़क
पर दुकानों के खूब चक्कर काटे। चेखव को ढूंढा। फिर वार्ड न. छह मिला। फिर वो हर
साल का मेरा पाठ बन गया। ये इत्तेफाक की बात है कि जिनको अन्दर होना चाहिये, वो बाहर हैं। जिनको बाहर होना चाहिये था वो अन्दर हैं। ऐसी
ट्रेजेडी आदमी को हिला कर रख देती है। अंग्रेजी बंगाली और दूसरी भाषाओं को पढ़ने पर
हिंदी साहित्य के स्तर को परखा जा सकता है। हिंदी में भी अच्छे लेखक है। पढ लें
आप। तुलना कर लें आप। उनका एंगल पकड़ लें तो वो जो खूबसूरत ऐंगल है। वो पढ़ने का
आनन्द देती है। भगवती चरण वर्मा ने ‘चित्रलेखा‘ लिख कर मेरे लिये तो मार्गदर्शन मानदण्ड खड़े किये। स्वेट
मार्डेन की किताब ‘जैसा चाहो वैसा बनो‘। चतुरसेन शास्त्री की ‘गोली‘ देखो आप। वृन्दालाल वर्मा, के.एम.मुंशी, सबसे बढ़िया।
(इसी बीच चाय भी आ गई और नमकीन भी। साथ ही सहगल साहब का नटखट
पौत्र अभीष्ट, जो बकौल सहगल साहब, बेहद
शैतान है और अपनी कक्षा का मानिटर है, भी अपनी उपस्थिति दर्ज
करा गया।)
संजय पुरोहित- सहगल साहब। आपके रचना
संसार की सूची पर नजर डालने पर लगा, बच्चों के लिये लेखन को
काफी पसंद करते हैं। बच्चों के लिये भी खूब लिखा।
हरदर्शन सहगल- नहीं। कम लिखा है।
बच्चों की कहानियां सौ के करीब लिखे है। बच्चों की समस्याओं पर लेख लिखे। नाटक
लिखे। खूब छपे। छप भी रहे हैं। वो अलग चीज है।
संजय पुरोहित- अभी अवार्डों, पुरस्कारों, सम्मानों में सेटिंगबाजों
की घुसपैठ, नाक़ाबिलों को सिफारिश के
आधार पर सम्मान किये जाने की वाहियात परम्परा चल पड़ी है। आप इस बारे में क्या
सोचते हैं ?
हरदर्शन सहगल- लोग पुरस्कार के लिये
लिखते हैं, उन्हे पुरस्कार मिल गये।
मुझे कोई महत्वाकांक्षा नहीं। मैंने लेखन के लिये लिखा, लिखता चला गया। कितनी पीढ़ी आई। चली गयी। मुझे लेखन में कभी
बाधा नहीं आई। ...हां। इस तरीके से मिलते हैं। मिल सकते हैं पुरस्कार। पर जनता में
क्या सन्देश जाता है ? जिसको पुरस्कार मिल गया और जिसकी कहानी लोकल पेपर में देख
ली वो बड़ा लेखक है ? हरदर्शन सहगल नहीं है ? चाहे हरदर्शन छप रहा है ‘कादम्बिनी‘ में, ‘समकालीन भारतीय साहित्य‘ में, ‘ज्ञानोदय‘ में, ‘माध्यम‘ में, ‘हंस‘ में। इस तरह की बहुत पत्रिकाओं में जो महत्वपूर्ण है। मैं
शुरू से ही इन पत्रिकाओं में छपता रहा हूं। मेरे प्रोफेसर साहब कहते थे कि तुम
बहुत अच्छे लेखक बनोगे। क्योंकि दो चीजें तुम्हारे पास हैं। एक तो नॉवल्टी, जो जरूरी चीज है। दूसरा एक ही बात को घूमा-फिरा के कई तरीके
से कह सकते हो। बस। काफी है तुम्हारे लिये। मेरा आशीर्वाद है, आशीर्वाद नहीं भी हो तो भी तुम्हे कोई रोक नहीं सकता (कह कर
हंस पड़े सहगल साहब)
संजय पुरोहित- कभी मलाल रहा कि जिस
स्तर का आपका लेखन है, जिस स्तर के अवार्ड के आप
सुपात्र हैं वे अन्य लोगों को मिलते चले गये ?
हरदर्शन सहगल- भई...थोड़ी सी लालसा तो
हर लेखक में होती है। पुरस्कार यदि हमसे बहुत काबिल आदमी ले जा रहा है, तो बहुत खुशी होती है। जब नाक़ाबिल ले जाता है, तकलीफ तो थोड़ी सी होती है...अच्छा एक बात बताईये....कि
जिसको पुरस्कार मिल रहे हैं, उसको सारे के सारे
पुरस्कार मिलते चले जा रहे हैं। क्या सारी लियाक़त एक आदमी में ही घुस गयी ? दूसरा कोई आदमी क़ाबिल नहीं है हिंदुस्तान में ? (हंसते हुए) पुरस्कार लेने होते तो मैं भी राजस्थानी सीखता।
अमरकांत को अस्सी साल की उम्र में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। मैंने उन्हे
पत्र लिखा। आपको अब अवार्ड मिल रहा है। राजस्थानी, कोंकणी जैसी
प्रादेशिक भाषा में हर साल एक पुरस्कार मिल जाता है। क्या आप नहीं मानते कि हिंदी
में जितनी किताबें छपती है, जितने लेखक हैं, उसी अनुपात में मल्टीप्लाई करके पुरस्कारों की संख्या हिंदी
में ज्यादा होनी चाहिये ? आप बूढ़े हो गये तब मिल
रहा है। यहां लड़के को मिल रहा है। वो भी साहित्य अकादमी का पुरस्कार है। वो भी
नाज-नखरे दिखाता है कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है।
संजय पुरोहित- आपने लगभग हर विधा में
इतनी स्तरीय पुस्तकें लिखी। श्रेष्ठ लेखन किया। आपके रचना संसार पर अब तक बारह
पी.एचडी.,एम.फिल.,शोध हुई। लगभग तीन सौ पचास कहानियां आपने लिखी। देशभर की
सभी श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में चार-पांच दशकों से लगातार आपकी रचनाओं का प्रकाशन
हो रहा है। फिर भी पुरस्कार नहीं।क्या सारे पुरस्कार ही गड़बड़ हैं ?
हरदर्शन सहगल-...पुरस्कार तो सारे ही
गड़बड़ हैं ही। इसमें कोई शक नहीं है। पुरस्कारों पर ही यदि लिखा जाये तो बड़ी किताब
नहीं तो एक बुकलेट तो बन ही जायेगी। मुझे चिट्ठियां भी आती रही। पाठक, शुभचिन्तक बताते भी रहे कि आपको अवार्ड मिलने वाला था, किंतु नाम काट दिया गया। और जगह से भी यह पता चलता रहा। नाम
होता है, दूसरा आदमी नाम कटवा देता
है....
संजय पुरोहित- क्या इससे निराशा होती
है ?
हरदर्शन सहगल- निराशा तो
क्या......मैं तो अपनी भड़ास कागजों में उतार देता हूं। बिड़ला फाउण्डेशन के अवार्ड
के समय अध्यक्ष नंदकिशोर आचार्य थे। मैंने उन्हे एक आफिसियल चिट्ठी लिखी। अकादमी
को चिट्ठी लिखी। अकादमी को लिखा ये कौन सा तरीका है यदि आपका नाम दूसरा प्रपोज करे
तो अवार्ड मिलेगा। स्वयं अप्लाई नहीं कर सकते ?
मंत्री की
सिफारिश लाओ। हरदर्शन की सिफारिश करने वाला कौन है ? (हंसते हुए) एक
बार से.रा.यात्री जी को एक पुरस्कार मिला। उनकी पहली टिप्पणी थी, ‘जरूर वहां कोई मेरा आदमी बैठा है।‘ इसी तरह मुझे गृह मंत्रालय का पांच सौ रूपये का एक पुरस्कार
मिला। इस पर मेरे भाई ने टिप्पणी की ‘शायद वहां ईमानदार लोग
बैठे हैं।‘ ये है पुरस्कारों की सारी
माया।
संजय पुरोहित- कभी फिल्मों के लिये
लिखने का सोचा ?
हरदर्शन सहगल- नहीं। ना ना। फिल्मो के
लिये हाज़रियां भरनी पड़ती है। धक्के खाने पड़ते हैं। मैं संकोची रहा, सब लोग बुलाते रहे। मैं नहीं गया। यात्राएं भी नहीं करता।
आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं है।
संजय पुरोहित- एक सवाल जरा हट के। कवि
क्यों नहीं बने ?
हरदर्शन सहगल- (हंसते हुए) धारा तो एक
ही है। जब सातवीं आठवीं में था तो शिशू पत्रिका में कविताएं छपी। कवि बने, थोड़े से। संवेदनशीलता होती ही है। कवि मन होता ही है।
कल्पनाशीलता होती है। इसके बिना लेखकपन का कोई अर्थ ही नहीं है।
संजय पुरोहित- तेज भागती दुनिया। कम
होते पाठकों का रोना। सूचना प्रौद्योगिकी का शोर। हरदर्शन सहगल साहब इस दौर को
कैसे देखते हैं ?
हरदर्शन सहगल- इस विषय में क्या कहा
जाये। ये तो जमाने की आंधी है। हम कितने प्रवचन दें दें। कितनी सीखें दे दें। बच्चों
को समझा दें। नई टेक्नालॉजी। नया दौर। एक दूसरे के प्रति उपेक्षा का भाव। दरअसल ये
समय की आंधी है। उनका दोष नहीं है। उसको कोई रोक नहीं सकता। अपने आप जमाना पलटता
है। वक्त आता है। फिर वैसी की वैसी स्थितियां बनती है। अब वक्त है कि चिटठी देखने
को आदमी तरसता है। एक बात और भी। पाठक नहीं होने का रोना। हर महीने हजारों की
तादाद में पत्र-पत्रिकाएं, अखबार निकलते हैं। ये
क्या कूडे में डाल दिये जाते हैं ? नहीं। ऐसा नहीं है। पाठक
हैं। मुझे दूर-दूर से पत्र आते हैं। विशाल पाठक वर्ग है। मेरी कहानी ‘लुटे हुए दिन‘ इंडिया टुडे में छपी।
उसके बाद आठवीं जगह जब छपी तो पाठक का फोन आया। विशाल हिंदी जगत है। मेरा मानना है
कि अप्रकाशित तो ठीक है। मौलिक भी ठीक है। मगर अप्रकाशित रहना ठीक नहीं है।
कहानियां रिपीट होनी चाहिये। ताकि अधिक से अधिक पाठकों तक रचना पहुंचे।
संजय पुरोहित- आपके लिये साहित्य का
यथार्थ क्या है ? अभिष्ट मूल्य क्या है ?
हरदर्शन सहगल- यदि हम अपनी दृष्टि में
थोड़ा पैनापन, लचीलापन, उदात्तवृत्ति लाकर देखें तो हम पाएंगे कि यह ‘यथार्थ‘, यथार्थ नहीं है। जीवन का
वास्तविक यथार्थ है सत्य, हमारे नैतिक शाश्वत, आदर्श मूल्य। इन्हे आत्मसात करने के लिये नीतिशास्त्र हमारा, हमारे साहित्य का मार्गदर्शक, सहायक बन सकता
है। मेरे ख्याल से साहित्य, विशेष रूप से कहानी, साहित्य का रूपान्तरण है। हम बार बार क्यों भूल जाते हैं कि
‘हित‘ साहित्य का सर्वाधिक
अनिवार्य और अभीष्ट मूल्य है। अंग है। साहित्य में हितकारी भावों की अभिव्यक्ति ही
उसे सार्थकता प्रदान करती है।
संजय पुरोहित- नये लेखकों के लिये
क्या कहना चाहेंगे ?
हरदर्शन सहगल- मैं इसे नहीं मानता कि
कोई नया होता है। नयापन तो उसके अन्दर बसा होता है तो प्रकट होता है। मेरे सामने
कितने आये इतनी पीढ़िया इतने लड़के मेरे सामने से आये। उभरे। शोर मचाया और खतम हो
गये। मेरा लेखन निरन्तर चलता, छपता रहा। युवा साहित्य
के क्षेत्र में अगर समर्पित भाव से आते हैं तो उनको कोई रोक नहीं सकता। और अगर वो
सिर्फ नाम रोशन करने के लिये आते हैं या पुरस्कार लेने के लिये आते हैं तो मिट
जायेंगे।
संजय पुरोहित- आपकी नजर में आने वाली
पीढ़ियों के द्वारा हरदर्शन सहगल के लेखन को किस प्रकार याद किया जाना चाहिये।
हरदर्शन सहगल- मेरा यह मानना है कि
किसी लेखक के रचना संसार का वास्तविक मूल्यांकन लेखक के मरने के सौ साल बाद होता
है। क्योंकि उस समय ना तो उसका कोई दोस्त होता है, ना दुश्मन होता
है।
संजय पुरोहित- आपने साक्षात्कार के
लिये अपना समय दिया। मैं आभारी हूं। आपके निरन्तर सृजनशील रहने और सुदीर्घ मंगलमय
जीवन की कामना करता हूं। धन्यवाद।................................................................................................................................
श्री हरदर्शन सहगल का
रचना संसार
1. मौसम 2.टेढ़े मूंह वाला दिन
3. मर्यादित 4.सरहद पर सुलह
5. मिस इंडिया: मदर इंडिया 6.प्रेम संबंधों की कहानियां
7. तीसरी कहानी 8.मुहब्बतें
व्यंग्य कथा संग्रह
गोल लिफाफे
हास्य संस्मरण संग्रह
झूलता हुआ ग्यारह दिसम्बर
उपन्यास
1.सफेद पंखों की उड़ान 2.टूटी हुई ज़मीन (देश विभाजन पर)3.कई मोड़ों के बाद (स्त्री विमर्श)
बाल उपन्यास
1. छोटे कदम: लम्बी राहें 2.मन की घंटियां
नाटक
1.घुमावदार रास्ते 2.मंजिल की ओर 3.सात हास्य नाटक
बाल कथा तथा नाटक संग्रह
करीब दस। समग्र बाल कहानियां चार खण्डों में।
आत्मकथा
डगर डगर पर मगर
लघुकथा संग्रह
आधी सदी का सफरनामा
संपादन 1. सदा ए अदब (उर्दू साहित्य) 2. नये आसमान 3. वर्जनाओं को लांघते हुए
विशेष: हरदर्शन सहगल के
रचना संसार पर अब तक 12 पी.एचडी. एमफिल,
शोध हो चुके हैं। एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम मे
कहानियां शामिल। इनकी कहानी पर टेलि फिल्में बनी। कई कहानियों का अन्य भाषाओं में
अनुवाद। उपन्यास ‘टूटी हुई जमीन‘
का गुजराती में अनुवाद प्रकाशित। सोवियत नारी
मास्को, राजस्थान साहित्य अकादमी
उदयपुर सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
------------------------------------------------
संजय पुरोहित
पुत्र स्व.श्री
बुलाकीदास बावरा
बावरा निवास, समीप सूरसागर,
धोबी धोरा, बीकानेर 334001
मो. न. 9413481345