वक्त*लघुकथा*संजय पुरोहित
मालती जब बहू बन कर आई तो सास के निरंकुश, कठोर अनुशासन में बंध कर जीवन की उमंग खो बैठी। सास का देहान्त हुआ। वक़्त गुज़रा। इकलौते पुत्र का विवाह हुआ। बहू आई तो मालती अपनी छाया बहू में देखने लगी। उसने बहू के लिए आज़ादी के सारे दरवाज़े खोल दिये। वक़्त गुज़रता रहा।
बहू की स्वच्छंद आज़ादी की कीमत पर मालती आजकल अपने पति के साथ ‘ओल्ड एज होम‘ में बाकी जीवन गुज़ार रही है।
बहू की स्वच्छंद आज़ादी की कीमत पर मालती आजकल अपने पति के साथ ‘ओल्ड एज होम‘ में बाकी जीवन गुज़ार रही है।
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