*मौन नारे*लघुकथा*संजय पुरोहित
न्याय के लिये दुखियारी राजधानी आई। पड़ गयी मीडिया के सामने। न्यूज़ चैनलों ने उसे नारे 'दिये', 'लगवाये'। नारे तो लगे, पर स्टोरी फीकी थी। मसाले के लिये अभागी को आगे-पीछे, चलवा कर रिकॉर्डिंग की। ये गये, तो अख़बार वाले आ गये। फिर नारे लगाने को कहा। वह यंत्रवत नारे लगाने लगी। फोटोग्राफर ने टोका, 'अरे फोटो अख़बार के लिये है, उसमें आवाज़ नहीं आयेगी। 'मौन नारे' लगाओ।'' बेचारी समझी नहीं तो रिपोर्टर ने डाइरेक्शन दिया, ''मुंह खोलो। हाथ खड़े करो। हो गये 'मौन नारे'।'' उसने ऐसा ही किया...पर...अब तक वह टूट चुकी थी। उसने अपनी जांघों के बीच दोनों हाथ धरे। कराह भरी एक सांस लेते हुए पूछा, ''साहेब न्याय कहां मिलेगा ?''
मीडियाकर्मियों ने कोई जवाब नहीं दिया। वे अपना काम निपटा चुके थे। अभागी के नारे मौन ही रह गये।
न्याय के लिये दुखियारी राजधानी आई। पड़ गयी मीडिया के सामने। न्यूज़ चैनलों ने उसे नारे 'दिये', 'लगवाये'। नारे तो लगे, पर स्टोरी फीकी थी। मसाले के लिये अभागी को आगे-पीछे, चलवा कर रिकॉर्डिंग की। ये गये, तो अख़बार वाले आ गये। फिर नारे लगाने को कहा। वह यंत्रवत नारे लगाने लगी। फोटोग्राफर ने टोका, 'अरे फोटो अख़बार के लिये है, उसमें आवाज़ नहीं आयेगी। 'मौन नारे' लगाओ।'' बेचारी समझी नहीं तो रिपोर्टर ने डाइरेक्शन दिया, ''मुंह खोलो। हाथ खड़े करो। हो गये 'मौन नारे'।'' उसने ऐसा ही किया...पर...अब तक वह टूट चुकी थी। उसने अपनी जांघों के बीच दोनों हाथ धरे। कराह भरी एक सांस लेते हुए पूछा, ''साहेब न्याय कहां मिलेगा ?''
मीडियाकर्मियों ने कोई जवाब नहीं दिया। वे अपना काम निपटा चुके थे। अभागी के नारे मौन ही रह गये।
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