*धंधा*लघुकथा*संजय पुरोहित
''भईये, कैसे दोगे तिरंगे-फरियां-झण्डे ?''
''मास्साब, जो रेट आई है, वही लगा दूंगा।''
''अरे मुझे रेट-वेट से मतलब नहीं। पहली बार स्टोर का चार्ज मिला है। ये बता, किस भाव देगा। बिल कितने का काटेगा ?''
''मास्साब। नये हो। मुझे नहीं जानते। बहुत धंधा किया साब, तिरंगे के लिए कभी उल्टा-सीधा नहीं किया। जो भाव है, सो है।''
मास्साब हकबकाये। अनपढ़ ने ज्ञान चुभो दिया था। चुपचाप सिरक लिये।
''मास्साब, जो रेट आई है, वही लगा दूंगा।''
''अरे मुझे रेट-वेट से मतलब नहीं। पहली बार स्टोर का चार्ज मिला है। ये बता, किस भाव देगा। बिल कितने का काटेगा ?''
''मास्साब। नये हो। मुझे नहीं जानते। बहुत धंधा किया साब, तिरंगे के लिए कभी उल्टा-सीधा नहीं किया। जो भाव है, सो है।''
मास्साब हकबकाये। अनपढ़ ने ज्ञान चुभो दिया था। चुपचाप सिरक लिये।
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